कोई टाटा-बिड़ला नहीं थे दादाजी
गांव के एक साधारण से आदमी थे
और खेती-बाड़ी, मेहनत-मजदूरी कर गुजारा करते थे
बनिये ने जब गांव में धर्मशाला बनवाई
चौधरी ने कुआ खुदवा दिया
ठाकुर ने मंदिर बनवा दिया
और डिप्टी साहब ने स्कूल में कमरे बनवा दिये
ठीक उन्हीं दिनों में दादाजी ने
गांव के गुवाड़ में एक बड़ का पेड़ लगाया।
पंद्रह अगस्त-छब्बीस जनवरी हो
या दूसरा कोई मौका
जब गांव में कोई कार्यक्रम होता
बनिया, ठाकुर, डिप्टी और चौधरी
बड़ी शान से बैठते थे वहां
और दूसरे सब लोग उन चारों की बड़ी सराहना करते थे
दादाजी भी उसी माठ से बैठते थे
अपने लगाए उस छोटे से दरख्त के पास
लेकिन दादाजी को कभी किसी ने उस तरह नहीं सराहा।
जीण-शीर्ण हुई उस धर्मशाला के पास अब सरकार ने
एक बड़ा सामुदायिक भवन बनवा दिया है
हर मौहल्ले में कुए खुद गए हैं
लेकिन उस बोड़िये कुए में पानी नहीं आता अब
अलबत्ता कचरा जरूर डालते हैं उसमें
आसपास के लोग
स्कूल में इतने बड़े-बड़े हॉल बने हैं
कि लगता ही नहीं
कि डिप्टी साहब के बनवाए कमरे की
कोई जरूरत रही भी होगी यहां।
मंदिर भी अब छोटा और पुराना पड़ गया है
कई बड़े मंदिर जो बन गए हैं
वैसे में मंदिरों में अब कोई आता-जाता नहीं
उस भूतहा मंदिर में तो कोई भी नहीं।
इधर
धर्मशाला, कुए, मंदिर
और स्कूल के कमरे की तरह
कतई अप्रासंगिक नहीं हुआ बड़ का वह पेड़
और न ही कोई दूसरा पेड़
उसे बौना कर पाया
वह आज भी खड़ा है गुवाड़ में
अपनी बांहों के रोज बढते फैलाव के साथ
जैसे खड़े हों दादाजी
हां, वही दादाजी
जो कोई टाटा-बिड़ला नहीं थे
गांव के एक साधारण से आदमी थे।
(कुमार अजय)
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