मेरी एक और ग़ज़ल
वेतन बढे, छोटे मकान हो गए...
सुविधाओं के ही घमासान हो गए
वेतन बढे, छोटे मकान हो गए।
दूर अपनों से इस कदर हुए
बिना क्षितिज के आसमान हो गए।
जिंदगी और मौत भी प्यारी लगीं
प्यार में दोहरे रूझान हो गए।
उल्फत में निकले लब्ज जाने कब
रामधुन-कीरतन-अजान हो गए।
मुश्किलें इस कदर पड़ी मुझ पर
जिंदगी के मसले आसान हो गए।
जिनमें सबकी अपनी अपनी कब्रे हैं
नाजुक आशियाने ही श्मसान हो गए।
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Bahoot koob ...
ReplyDeleteSaandaar Likha hai.......