Sunday, June 26, 2011

साहित्य अकादेमी व प्रयास संस्थान की ओर से चूरू में राजस्थानी महिला लेखन पर केंद्रित सम्मेलन ‘झीणां सुरां री पड़ताल’ संपन्न

साहित्य अकादेमी नई दिल्ली द्वारा प्रयास संस्थान चूरू के स्थानीय समन्वय से राजस्थानी भाषा में महिला लेखन पर केंद्रित सम्मेलन ‘झीणां सुरां री पड़ताल का आयोजन 25 जून शनिवार को चूरू के होटल सनसिटी पैलेस में किया गया। आयोजन में प्रदेश भर से महिला लेखकों ने शिरकत की।

सम्मेलन का आरंभ साहित्य अकादेमी में राजस्थानी भाषा परामर्श मंडल के संयोजक तथा राजस्थानी के ख्यातनाम साहित्यकार पद्मश्री डॉ चंद्रप्रकाश देवल व अतिथियों ने दीप प्रज्जवलित कर किया। उद्घाटन सतर्् की अध्यक्षता करते हुए डॉ देवल ने कहा कि महिला स्वतंतर््ता के नाम पर प्रचलन में आ रही फैशनेबल चीजें घातक हैं, महिलाओं को उनके वास्तविक हक मिलने चाहिए। उन्होंने कहा कि जब महिलाएं अपने होने को समझेंगी, तब वास्तव में अपने होने की पैरवी कर सकेंगी और तभी कालजयी साहित्य का सृजन होगा। उन्होंने कहा कि महज स्तर््ी होते हुए लिखना ही महिला लेखन नहीं है। उन्होंने कहा कि स्तर््ैण चित्त, स्तर््ैण अनुभव और स्तर््ैण लेखनी के संयोग से राजस्थानी की लेखिकाएं अपने लेखन में आधी आबादी की पीड़ा और संकटों को स्वर देते हुए ऎसा उत्कृष्ट साहित्य सृजन करें कि उस सृजन पर पूरी दुनिया गर्व कर सके। उन्होंने राजस्थानी लेखिकाओं को चुनौती देते हुए कहा कि नारी की स्थिति-परिस्थिति, पीड़ा और चिंता का ऎसा चितर््ण अपने साहित्य में कर दिखाएं कि हम गर्व से कह सकें कि वैसा इससे पहले कभी और किसी भी भाषा में नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि मीरा का नाम लेने मातर्् से काम नहीं चलेगा, हमें उस स्तर के संघर्ष और सृजन की उत्कृष्टताओं को छूने का प्रयास करना होगा। डॉ देवल ने कहा कि राजस्थानी साहित्य में आलोचना के विकास की फिलहाल सर्वाधिक जरूरत है। उन्होंने राजस्थानी में महिला लेखन पर केंद्रित पतर््-पतिर््काओं के प्रकाशन की आवश्यकता जाहिर की।

बीज भाषण में प्रो. अर्जुनदेव चारण ने कहा कि एक रचनाकार हमेशा यह कोशिश करता है कि प्रकृति और मनुष्य के बीच बढती जा रही दूरी किस तरह से कम की जाए। उन्होंने कहा कि राजस्थानी महिला लेखन में प्रकृति से गहरा रिश्ता झलकता है। उन्होंने कहा कि जिस तरह राह भटकते बेटे को घर में मां समझाती है, उसी के व्यापक परिपे्रक्ष्य में पूरे समाज के मार्गदर्शन की जिम्मेदारी लेखिकाओं पर है। उन्होंने कहा कि राजस्थान में महिला विमर्श की इतनी सशक्त बुनियाद रही है कि यहां मीरां ने 500 वर्ष पहले स्तर््ी के अस्तित्व और मनुष्य के अस्तित्व की लड़ाई लड़ी। आज हमें मीरां की ही उसी िंचंंतन परंपरा को आगे बढाने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि राजस्थान की परिस्थितियों को देखते हुए यहां महिला लेखन की संभावनाएं सर्वाधिक है, आवश्यकता इस बात की है कि इन संभावनाओं को मूर्त रूप दिया जाकर सशक्त साहित्य सृजन हो। उन्होंने कहा कि हमारे पितृसत्तात्मक समाज में स्तर््ी को हर युग में हाशिये पर रखने की कोशिश की गई है। हमारे समाज ने स्तर््ी को महिमामंडित तो खूब किया लेकिन अधिकार नहीं दिए। उन्होंने कहा कि वर्तमान समय में व्यक्ति के पास प्रेम के लिए भी स्पेस नहीं बचा है और इससे भी बड़ी विडंबना यह है कि हम प्रेम करने के योग्य ही नहीं रहे हैं। हम खुद से ही अजनबी होते जा रहे हैं और ये आत्म-उन्मूलन के लक्षण हैंं।

प्रयास संस्थान के अध्यक्ष दुलाराम सहारण ने आभार व्यक्त करते हुए कहा कि अकादमी ने उन पर आयोजन के लिए भरोसा जताया, इसके लिए वे आभारी हैं। उन्होंने प्रदेश भर से आए साहित्यकारों व साहित्यप्रेमियों का भी आभार जताया। इस मौके पर अकादेमी के सहायक संपादक शांतनु गंगोपाध्याय ने स्वागत भाषण देते हुए अकादेमी की गतिविधियों की जानकारी दी। उद्घाटन सतर्् का संचालन कमल शर्मा ने किया।

राजस्थानी के पद्य लेखन पर चर्चा ः-

उद्घाटन के बाद राजस्थानी पद्य लेखन पर आयोजित प्रथम सतर्् की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार डॉ तारालक्ष्मण गहलोत ने कहा कि समाज में निरंतर आ रहे बदलाव के साथ महिला लेखकों के समक्ष खासी चुनौतियां उभर कर आ रही हैंं और उनसे बचकर नहीं निकला जा सकता है। महिला लेखकों को उन चुनौतियों का सामना करते हुए श्रेष्ठ साहित्य का सृजन करना होगा। उन्होंने कहा कि स्तर््ी को केंद्र मेंं रखकर पुरूष साहित्यकारों ने भी अच्छा लेखन किया है, जिसे दरकिनार नहीं किया जा सकता है। साहित्यकार डॉ उषा कंवर राठौड़ ने ‘मध्यकाल सूं आधुनिक काल रै दौर मांय राजस्थानी रौ महिला पद्य लेखन विषय पर अपने पतर््वाचन में कहा कि राजस्थान की सांस्कृतिक चेतना, इतिहास, दर्शन, भक्ति, नीति और आज का उदात्त मानवीय भाव व चिंतन यहां के महिला लेखन की ताकत बनता जा रहा है। उन्होंने कहा कि आधुनिक महिला लेखन में तर्क व चिंतन की प्रधानता है जिससे भाव व विचार असरदार ढंग से सामने आए हैं। डॉ प्रकाश अमरावत ने अपने पर्चे मेंं कहा कि नए विषय, भाव, बिंब, कथ्य और नए प्रयोेगों के साथ राजस्थानी महिला लेखन लगातार आगे बढ रहा है। उन्होंने कहा कि परंपरागत छंदों के अलावा राजस्थानी पद्यकार डांखळा, सोनेट, हाइकू, क्षणिकावां व टुणकला के जरिए भी साहित्य को समृद्ध कर रहे हैं। डॉ चांदकौर जोशी ने अपने पतर्् में कहा कि राजस्थानी महिला लेखकों ने सराहनीय सृजन किया है लेकिन इस दिशा में अभी बहुत काम शेष है। उन्होंने कहा कि महिला लेखकों को समाज में फैली कुरीतियों को केंद्र में रखकर साहित्य का सृजन करना चाहिए। इस सतर्् का संचालन युवा रचनाकार विश्वनाथ भाटी ने किया।

राजस्थानी गद्य लेखन पर विचार-विमर्र्श ः-

साहित्यकार डॉ प्रकाश अमरावत की अध्यक्षता में आयोजित दूसरे सतर्् में साहित्यकार विमला भंडारी ने ‘मेवाड़ रै संदर्भ मांयं राजस्थांनी महिला लेखन विषय पर अपना पतर्् पढते हुए कहा कि राजस्थानी साहित्य में नारी की वीरता और मातृभूमि की भक्ति से भरपूर चरितर्् को प्रमुख रूप से उभारा गया है। उन्होंने कहा कि राजस्थानी साहित्य के आकाश में प्रकाश की उजली किरण दिख रही है और राजस्थानी साहित्य का भविष्य उज्जवल है। पुष्पलता कश्यप ने ‘कथा जगत मांय राजस्थांनी महिला लेखन विषय पर पतर्् पढते हुए कहा कि लेखिकाओं को घर-संसार से आगे बढकर वैश्विक चिंताओं और मसलों पर भी अपनी कलम चलानी चाहिए। उन्होंने कहा कि विभिन्न विधाओं में राजस्थानी लेखिकाओं ने गद्य साहित्य को समृद्ध किया है। द्वितीय सतर्् का संचालन तारानगर के युवा साहित्यकार देवकरण जोशी दीपक ने किया।

कविता पाठ के साथ हुआ समापनः

समापन सतर्् में सम्मेलन का सार प्रस्तुत करते हुए युवा रचनाकार गीता सामौर ने कहा कि आधुनिक राजस्थानी महिला लेखन में और अधिक सशक्त एवं कालजयी सृजन की दरकार है। उन्होंने कहा कि लेखन की सार्थकता तभी है जब हृद्य की बात हृद्य तक पहुंचे। उन्होंने कहा कि राजस्थानी के पुरूष लेखकों ने भी स्तर््ी विमर्श को लेकर जोरदार साहित्य का सृजन किया है।

इस सतर्् में कवयितिर््यों द्वारा प्रस्तुत रचनाओं ने श्रोताओं का मनोरंजन किया। डॉ कविता किरण ने राजस्थानी गजल ‘जीवड़ा मांय ढळगी रात...’ सुनाकर खूब दाद पाई। मीराबाई पर केंद्रित उनकी कविता भी खूब सराही गई। शकुंतला रूपसरिया ने ‘रोतां नैं छोड गई रमकूड़ी प्यारी...’ के जरिए पिता के आंगन से बेटी की विदाई का मार्मिक चितर्् प्रस्तुत किया तो ‘प्यारा म्हारा साजणिया सरदार... पेश कर भी सराहना पाई। डॉ शारदा कृष्ण ने ‘बीतगी आधी सदी इण आस में...’ के साथ-साथ अपनी लघु-कविताएं प्रस्तुत कीं।

सम्मेलन में वरिष्ठ साहित्यकार बैजनाथ पंवार, भंवर सिंह सामौर, मुकन सिंह सहनाली, सोहन सिंह दुलार, रियाजत अली खान, डॉ जमील चौहान, श्याम सुंदर शर्मा, रामगोपाल बहड़, माधव शर्मा, हरिसिंह सिरसला, महावीर नेहरा, बीरबल नोखवाल सहित बड़ी संख्या में गणमान्य नागरिक व साहित्यप्रेमी मौजूद थे।

Thursday, June 23, 2011

आ लौट के आजा मेरे मीत...

अद्भुत प्रतिभा वाले गीतकार थे चूरू के पं. भरत व्यास

‘मुन्नी बदनाम’ और ‘शीला की जवानी’ जैसे भड़कीले, फूहड़ और कनफोड़ू गानों के इस दौर में सुमधुर-सार्थक गीतों के रसिकों को हिंदी फिल्मों के प्रसिद्ध गीतकार भरत व्यास की याद आना स्वाभाविक ही है। उनकी कलम से रचा गया एक-एक गीत हमारे सिने-जगत और साहित्य जगत दोनों के लिए समान रूप से अनमोल धरोहर है। अद्भुत प्रतिभा के धनी पं. भरत व्यास ने फिल्मों के लिए जो भी लिखा, वह उच्च कोटि का साहित्य है और उन्हें अपनी इस विशेषता के लिए युगों-युगों तक कृतज्ञता के साथ याद किया जाता रहेगा।

चूरू के पुष्करणा ब्राह्मण परिवार में विक्रम संवत 1974 में मार्गशीर्ष कृष्णा अष्टमी को जन्मे भरत व्यास जब दो वर्ष के थे, तभी उनके पिता का निधन हो गया और इस तरह कठिनाइयों ने जीवन के आरंभ में ही उनके लिए एक बड़ी चुनौती पेश कर दी। भरत जी बचपन से ही प्रतिभा संपन्न थे और उनके भीतर का कवि छोटी आयु से ही प्रकट होने लगा था। भरतजी ने पहले दर्जे से लेकर हाई स्कूल तक की शिक्षा चूरू में ही प्राप्त की और चूरू के लक्ष्मीनारायण बागला हाईस्कूल से हाई स्कूल परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने आगे की पढाई के लिए बीकानेर के डूंगर कॉलेज में प्रवेश लिया। स्कूल समय में ही वे तुकबंदी करने लगे थे और फिल्मी गीतों की पैरोडी में भी उन्होंने दक्षता हासिल कर ली। मजबूत कद-काठी के धनी भरत व्यास डूंगर कॉलेज बीकानेर में अध्ययन के दौरान वॉलीबाल टीम के कप्तान भी रहे।

बीकानेर से कॉमर्स विषय में इंटर करने के बाद नौकरी की तलाश में कलकत्ता पहंचे लेकिन उनके भाग्य में शायद कुछ और ही लिखा था। इस दौरान उन्होंने रंगमंच अभिनय में भी हाथ आजमाया और अच्छे अभिनेता बन गए। अभिनेता-गीतकार भरत व्यास ने शायद यह तय कर लिया था कि आखिर एक दिन वे अपनी प्रतिभा का लौहा मनवाकर रहेंगे। चूरू में वे लगातार रंगमंच पर सक्रिय थे और एक अच्छे रंगकर्मी के रूप में उनकी पहचान भी बनी लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर पहली कामयाबी उन्हें तब मिली, जब कलकत्ता के प्राचीन अल्फ्रेड थिएटर से उनका नाटक ‘रंगीला मारवाड़’ प्रदर्शित हुआ। इस सफलता से भरत जी को काफी प्रसिद्धि मिली और यहीं से उनके कामयाब जीवन की शुरुआत हुई। इस नाटक के बाद उन्होंने ‘रामू चनणा’ एवं ‘ढोला मरवण’ के भी जोरदार शो किए। ये नाटक स्वयं भरतजी ने ही लिखे थे। कलकत्ता में ही प्रदशित नाटक ‘मोरध्वज’ में भरत जी ने मोरध्वज की शानदार भूमिका निभाई। दूसरे विश्वयुद्ध के समय भरत व्यास कलकत्ता से लौटे और कुछ समय बीकानेर में रहे। बाद में एक दोस्त के जरिए वे अपनी किस्मत चमकाने सपनों की नगरिया मुंबई पहुंच गए, जहां उन्हें अपने गीतों के जरिए इतिहास बनाना था।

फिल्म निर्देशक और अनुज बी एम व्यास ने भरतजी को फिल्मी दुनिया में ब्रेक दिया। फिल्म ‘दुहाई’ के लिए उन्होंने भरतजी का पहला गीत खरीदा और दस रुपए बतौर पारिश्रमिक दिए। भरत जी ने इस अवसर का खूब फायदा उठाया और एक से बढकर एक गीत लिखते गए। सफलता उनके कदम चूमती गई और वे फिल्मी दुनिया के ख्यातनाम गीतकार बन गए। ‘आधा है चंद्रमा, रात आधी..’ ‘जरा सामने तो आओ छलिये’, ‘ऎ मालिक तेरे बंद­ हम’, ‘जा तोसे नहीं बोलूं, घूंघट नहीं खोलूं’, ‘चाहे पास हो चाहे दूर हो’, ‘तू छुपी है कहां, मैं तड़पता यहां’, ‘जोत से जोत जलाते चलो’, ‘कहा भी न जाए, चुप रहा भी न जाए’ जैसे भरतजी की कलम से निकले जाने कितने ही गीत है जो आज बरसों बीत जाने के बाद भी उतने ही ताजा हैं और सुनने वाले को तरोताजा कर देते हैं।

भरत जी ने जब फिल्मी गीत लिखना शुरू किया, उस दौर में गीतों में उर्दू का असर ज्यादा था। ऎसे में भरत जी ने अपने समकालीन गीतकारों को साथ लेकर फिल्मी गीतों में हिंदी के प्रयोग का आंदोलन खड़ा कर दिया। भरत जी के गीतों की सबसे बड़ी खासियत यह रही कि उन्होंने फिल्म की सिचुएशन के हिसाब से कम ही गीत लिखे। बहुत सारी रचनाएं उन्होंने स्वतंत्र रूप से लिखीं, जो बाद में फिल्मों में शामिल होती गईं। उन्होंने फूहड़ता और अश्लीलता का कभी साथ नहीं दिया और यथासंभव इसका विरोध ही किया। हिंदी गीतों के अलावा उन्होंने राजस्थानी फिल्मों के लिए भी गीत लिखे। ‘थांनै काजळियो बणाल्यूं-नैणां में­ रमाल्यूं ...’ जैसे उनके गीतों से राजस्थानी सिनेमा को एक नया आयाम मिला। उन्होंने करीब सवा सौ फिल्मों में गीत लिखे और हमेशा एक लोकप्रिय व सफल गीतकार के रूप में वे इंडस्ट्री में जाने गए।

भरत व्यास ने अपने गीतों म­ें मानवीय संवेदना, विरह-वेदना, संयोग-वियोग, भक्ति व दर्शन का ही समावेश ही नहीं किया, बल्कि उनके गीतों में­ सुरम्यता और भाषा शैली का भी जोरदार समावेश था। उनकी प्रसिद्धि की वजह से बडे-बडे निर्माताओं की फिल्मों में­ गीत लिखने का अवसर उन्ह­ें मिला। भरत व्यास के लिखे अधिकांश गीतों को मुकेश व लता मंगेशकर की आवाज का सौभाग्य प्राप्त हुआ। एक समय तो वी. शांताराम का निर्माण- निर्देशन और पंडित भरत व्यास के गीत एक दूसरे के पर्याय बन गए थे एवं सफलता की गारंटी भी। वैसे भरत व्यास ने लक्ष्मीकांत - प्यारेलाल, कल्याण जी - आनन्द जी, बसंत देसाई, आर डी बर्मान, सी. रामचन्द्र जैसे दिग्गज संगीतकारों के लिए भी गीत रचना की, लेकिन उनकी जबर्दस्त हिट जोड़ी एस एन त्रिपाठी साहब से बनी। बहुआयामी प्रतिभा के धनी भरत व्यास ने न केवल अपने गीतों म­ें देशभक्ति, राष्ट्रीय एकता और बलिदान का संदेश दिया, बल्कि प्रेम से परिपूरित भावनाओं के भी गीत भी लिखे। ’नवरंग‘, ’सारंगा‘, ’गूूंज उठी शहनाई‘, ’रानी रूपमती‘, ’बेदर्द जमाना क्या जाने‘, ’प्यार की प्यास‘, ’स्त्री‘, ’परिणीता‘ आदि ऎसी कई प्रसिद्ध फिल्में­ हैं, जिनमें­ उनकी कलम ने प्रेम भावनाओं से ओत-प्रोत गीत लिखे। 4 जुलाई 1982 को हमसे जुदा हुए भरत व्यास आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके लिखे गीत आज भी चारों ओर गूँज रहे हैं। उनके गीतों के रस में डूबने को उतावला मन रानी रूपमती फिल्म के लिए भरत व्यास के लिखे इस गीत की तर्ज पर बस यही गुनगुनाता है- ‘आ लौट के आजा मेरे मीत, तुझे मेरे गीत बुलाते हैं...।’

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