Tuesday, December 29, 2009

नये साल की मुबारकबाद


बढ़ी हुई शेव के साथ
बिस्तर पर
औंधे मुंह पड़े हुए
बावजूद अनिच्छा के
नये साल में घुस रहा हूं,

ख्वाबों की खूबसूरती में
गुजरे हुए कल
और
अतीत की तरह सुनहरे
भविष्य की उम्मीदों को
किनारे करके
वर्तमान सवार है
मेरी पीठ पर
सच सी निर्ममता लिये।

दोस्तो !
तुम नहीं जानते शायद
कि तुम्हारी दुआएं
महज मजाक हैं
खुद को
और मुझे
बहलाने की कोशिश भर।

यदि नहीं तो फिर
सारे मिलकर
शोकग्रस्त हो जाओ
गुजरे हुए उस साल के लिए
जो कभी आया था यकीनन
नये साल की तरह
हम सभी की जिंदगी में ।
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Friday, December 25, 2009

मेरी एक और ग़ज़ल


वेतन बढे, छोटे मकान हो गए...

सुविधाओं के ही घमासान हो गए
वेतन बढे, छोटे मकान हो गए।

दूर अपनों से इस कदर हुए
बिना क्षितिज के आसमान हो गए।

जिंदगी और मौत भी प्यारी लगीं
प्यार में दोहरे रूझान हो गए।

उल्फत में निकले लब्ज जाने कब
रामधुन-कीरतन-अजान हो गए।

मुश्किलें इस कदर पड़ी मुझ पर
जिंदगी के मसले आसान हो गए।

जिनमें सबकी अपनी अपनी कब्रे हैं
नाजुक आशियाने ही श्मसान हो गए।
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Sunday, December 20, 2009

कुमार अजय की एक ग़ज़ल


उसने मुझ पर उछाले पत्थर
मैंने बुनियाद में डाले पत्थर।

तेरी राह में हर मील पे गड़ा हूं
तेरी औकात है तो हिला ले पत्थर।

मेरी तो आदत है सच कहूंगा ही
तू हाथों में लाख उठा ले पत्थर।

हर पत्थर सजदे में झुका है
उसने कुछ ऐसे हैं ढाले पत्थर।

बुरे दौर में रोटी की बात न कर
तलब है तो पी ले पत्थर, खा ले पत्थर।


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Tuesday, November 3, 2009

क़दमों तले आसमान

कामयाबी के लिए जरूरी है जुनून
वायुसेना के परिवहन बेड़े में गजराज के नाम से मशहूर आईएल ७६ की सफल उड़ान भरने वाली प्रथम भारतीय महिला पायलट वीणा सहारण ने पुरूषों के वर्चस्व वाले इस क्षेत्र में धमाकेदार दस्तक दी है। खुली आंखों से सपना देखकर आकाश छूने वाली राजस्थान के चूरू जिले के एक छोटे से गांव रतनपुरा की वीणा का मानना है कि जिंदगी संघर्ष और जिंदादिली का ही नाम है। वीणा कहती हैं, जिस क्षण आपके संघर्ष खत्म हो जाएं, समझ लें कि प्रगति की संभावनाएं भी आपने खो दी हैं।
पेश हैं वीणा से हुई बातचीत के अंश-
सवाल- वीणा जी, गांव की मिट्टी से आसमान तक का ये सफर, क्या कहेंगी ?
जवाब- हमारे देश में ग्रामीण पृष्ठभूमि से निकले लोगों ने बड़ी उपलब्धियां अर्जित की हैं। इसलिए ग्रामीण पृष्ठभूमि कोई डिसएडवांटेज नहीं, बशर्ते आपका उद्देश्य स्पष्ट हो और जुनून की हद तक आप कोई काम करने का माद्दा रखते हों। फिर मेरे माता-पिता ने मुझे एक बेहतरीन परिवेश दिया और मुझे निर्णय लेने में हमेशा सपोर्ट किया। आज उन्हीं की बदौलत इस ऊंचाई पर हूं। आज मैं जो भी हूं, उसके लिए अपने परिवार की ऋणी हूं और मेरी तमाम उपलब्धियों का श्रेय उन्हीं को है।
सवाल- आपकी शिक्षा-दीक्षा कहां हुई ?
जवाब- चूंकि मेरे पिता कर्नल एचएस सहारण एक ट्रांसफरेबल जॉब में थे, इसलिए मैंने भारत भर के विभिन्न केंद्रीय विद्यालयों में अध्ययन किया। माता-पिता दोनों ने ही मेरी पढ़ाई में बड़ा इंटरेस्ट लिया और दीदी ने भी। यही कारण रहा कि मैं शुरू से ही पढ़ाई में होशियार रही। कॉलेज एज्युकेशन मैत्रेयी कॉलेज से ली, जहां मैंने यूनिवर्सिटी गोल्ड मैडल हासिल किया।

सवाल- ऐसे शानदार शैक्षणिक रिकॉर्ड के साथ हर कहीं आपके लिए बेहतर अवसर थे, फिर सैन्य क्षेत्र चुनने की वजह ?
जवाब- पढ़ाई में होशियार होने का मतलब यह नहीं कि मैं महज किताबी कीड़ा बनकर रही। स्पोट्र्स और एडवेंचर एक्टिीविटीज में बहुत इंटरेस्टेड थी मैं। क्रिकेट और फुटबॉल मेरी पंसद हुआ करते थे स्कूली दिनों में। उन दिनों मैं भी दूसरे बच्चों की तरह इंजीनियर, पायलट, आर्किटेक्चर और आईएएस बनने के बनने के ख्वाब बुना करती थी। मैंने बचपन से ही डिफेंस लाइफ को नजदीक से देखा था और हर पासिंग ईयर में इसके लिए मेरा जुनून बढ़ता ही चला गया। मैंने कॉलेज में एनसीसी (आर्मी विंग) ज्वॉइन की और सी सर्टिफिकेट हासिल किया। साथ ही माउंटेनियंंरिंग गतिविधियां भी चलती रहींं। कॉलेज के बाद मैं आर्मी में कैरियर च्वाइस के रूप में फ्लांइग लेना चाहती थी लेकिन आर्मी एविएशन में महिलाओं का प्रवेश संभव नहीं था। तब मैंने दुनिया की चौथी सबसे बड़ी इंडियन एयर फोर्स ज्वॉइन करने का निर्णय लिया और २००२ में कमीशन प्राप्त कर लिया।

सवाल- वायुसेना में प्रवेश के पहले क्या कोई उड़ान अनुभव था ?
जवाब- नहीं, छत के ऊपर से गुजरते हुए विमानों को देखा भर था , बस। आईएएफ ज्वॉइन करने से पहले १९९६ में हॉट एयर बैलून ही मेरा इकलौता उड़ान अनुभव था।
सवाल- महिलाओं के लिए गैर-परंपरागत माने जाने वाले सैन्य क्षेत्र में किस तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ा ?
जवाब- वैसे तो सैन्य बलों में प्राचीन काल से ही महिलाएं योद्धा के रूप में रही हैं, जिनकी आज हम पूजा करते हैं। फिर भी यहां सैन्य बल पुरूष केंद्रित रहे हैं। मुझे इस तथ्य ने नहीं रोका क्योंकि मेरा लक्ष्य स्पष्ट था। फ्लांइग ब्रांच में प्रशिक्षण पुरूषों और महिलाओं के लिए समान था पर मेरे भीतर अपना सर्वोत्तम देने का जुनून और कठोर परिश्रम का उत्साह था। शारीरिक और मानसिक तनाव के इस कड़े दौर में सभी प्रशिक्षक मेरे लिए महान प्रेरणा के स्रोत रहे। मेरे परिवार, मित्रों और सहकर्मियों ने मेरा साथ दिया और मेरा उत्साह बनाए रखा।

सवाल- गजराज के बारे में बताइए।
जवाब- गजराज के नाम से मशहूर आईएल-७६ अथवा एल्युशिन-७६ एक रूसी एयरक्राफ्ट है, जो १९८४ में भारतीय वायुसेना में शामिल हुआ। १९० टन वजनी यह एयरक्राफ्ट ४३ टन वजन ढो सकता है। युद्ध सामग्री, राहत सामग्री और पैरा ट्रूपर्स के परिवहन में इसका उपयोग होता है। भारतीय वायुसेना के सर्वाधिक विशाल और भारवाहक इस जहाज में मध्यम आकार के टैंक तक ले जाए जा सकते हैं। इस एयरक्राफ्ट का निर्माण मॉस्को की एल्युशिन एवियेशन कॉम्पलेक्स ज्वाइंट स्टॉक कंपनी और उजबेकिस्तान में ताशकंद एयरक्राफ्ट प्रोडक्शन कॉरपोरेशन द्वारा किया जाता है।
सवाल- रिकार्ड उड़ान के वक्त आपने कैसा महसूस किया?
जवाब- आईएल ७६ की उड़ान पर मेरे स्थानांतरण की सूचना मेरे लिए खुशनुमा आश्चर्य थी। वह क्षण मेरे लिए विभिन्न भावनाओं से भरा हुआ था। मैं बेहद खुश थी, और नर्वस भी। मुझे अपने भीतर के फौलाद को इस उड़ान में साबित करना था। मैं जानती थी कि इस विशालकाय मशीन को उड़ाने वाली मैं पहली महिला बन जाऊंगी। यकीन कीजिए, इस मशीन को उड़ाना आसान नहीं था, पर असंभव तो कुछ भी नहीं। फिर वायुसेना के सर्वोत्कृष्ट विशेषज्ञ पायलटों ने मुझे प्रशिक्षित किया था। रिकॉर्ड बनाने के बाद यह सोचकर अभिभूत हूं कि मेरे माता-पिता, अध्यापक, प्रशिक्षक, सहकर्मी और मित्र मुझ पर गर्व करते हैं।

सवाल- अब अगला लक्ष्य?
जवाब- अभी मेरा उद्देश्य इस एयरक्राफ्ट पर विशेषज्ञता हासिल करना है। फिलहाल मैंने इसी पर खुद को केंद्रित कर रखा है।

सवाल- राजस्थान में महिलाओं की दशा के बारे में क्या कहेंगी?
जवाब- बाल विवाह, कुपोषण, अनचाहा गर्भ, आर्थिक आत्मनिर्भरता का अभाव, पुत्र को प्राथमिकता की मानसिकता, हीन भावना आदि बेड़ियों में राजस्थान की नारी जकड़ी हुई है। सर्वाधिक निराशाजनक तथ्य यह है कि महिलाओं ने इस दशा को ही अपनी नीयति मानकर स्वीकार कर लिया है। कुप्रथाओं का विरोध होना चाहिए। शिक्षा, स्वास्थ्य और जागरुकता पर ध्यान दिया जाना चाहिए।

सवाल- युवा लड़कियों के लिए कोई संदेश?
जवाब- सर्वप्रथम, कोई सपना बुनो और उसे जियो। अपने लक्ष्य के लिए कठोर मेहनत करो। इस दौर में आत्मनिर्भरता की बहुत आवश्यकता है। ईश्वर ने हमें एक जिंदगी दी है, इसका पूर्ण उपयोग कर इसे कीमती बनाएं। जितना अधिक सीख सकती हैं, सीखें। मुसीबतों और पीड़ाओं को भूलकर महसूस करो कि जिंदगी इनसे परे भी बहुत कुछ है। जिस दिन तुमने संघर्ष करना छोड़ दिया, वह तुम्हारे विकास का आखिरी दिन होगा। इसलिए आगे बढ़ो और अपने प्रियजनों के गर्व का कारण बन जाओ। लड़कियों! तुम निर्माता हो। इस दुनिया में कुछ भी तुम्हारे लिए असंभव नहीं।

Monday, October 12, 2009

किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए...

यूं इस दिवाली पर भी परेशां और फिक्रमंद होने के लिए काफी कुछ है, बीती दिवालियों की तरह ही, मसलन... मंदिरों की आरतियों को चीख चीत्कार में बदलते धमाके... बाजारों की रौनक को जर्रा-जर्रा कर देने वाले हादसे... दुश्मनों की बदनीयत की शिकार सरहदें... रोजमर्रा बनी मुठभेड़ों में शहीद होते हमारे जवान... मतलब के कीचड़ से सनी राजनीति... भ्रष्टाचार के दलदल में डूबी नौकरशाही... और हत्या, लूट, अपहरण, बलात्कार की खबरों से भरे अखबार हमारी दिवाली पर कालिख मलने को आतुर हैं, वहीं औंधे मुंह पड़ा सैंसेक्स और आटे-दाल का भाव बता रही महंगाई भी हमारी मुश्किलों में इजाफे के लिए कम नहीं। ये तमाम चीजें हमारी दिवाली को बेरौनक और बेमजा करने के लिए जुटी हैं। वैसे भी जिस व्यवस्था में भ्रष्ट, मतलब परस्त और सत्तालोलुप नेताओं, रिश्वतखोर नौकरशाहों तथा अंधेेरे के हिमायती आतंकियों के घर खुशियों के दीप हैं, वहां आम आदमी के लिए दिवाली की गुंजाईश ही कहां है मगर शायद इसीलिए हमारा किरदार ज्यादा अहम हो गया है।
आइए, इन मुश्किलातों से इतर एक दीया जलाएं खुशी का... खुशहाली का...अमनो-सुकून का। इन सब हादसों को अनदेखा कर नहीं, वरन इन सब तकलीफों और नातकदीरियों के खिलाफ। संभावनाओं का एक ऐसा चिराग, जिसकी रोशनी हमारी दीवारों की कैद से निकलकर गांव-शहर और ढाणी-ढाणी की छतों की मुंडेरों से गुजरते हुए हर किसी की जिंदगी में रोशनी करे। ये रोशनी जब लौटकर आएगी, यकीन मानिए वह लम्हा निसंदेह हमारे लिए सुकूने-दिल से लबरेज होगा।
कोई जरूरी नहीं कि हम कोई बड़ा दिखने वाला काम हाथ में लें, या फिर बहुत रुपया पैसा खरचने के लिए हमारी जेब में हो या बहुत सारे लोगों का हुजूम साथ लेकर हम चलें। बगैर किसी हो-हंगामे और लाव-लश्कर के भी हम यह काम अंजाम दे सकते हैं, बेहद खूबसूरती से। हां, इतनी शर्त जरूर है कि हमारे जेहन में एक जज्बा हो और एक पुख्ता इरादा हो इस दिवाली को हर घर, हर दिल में पहुंचाने का...
बहुत दिन हुए दादा-दादी, मम्मी-पापा की गोद में बैठकर ढेर सारी बातें किए... तो आज फुरसत भी है, और मौका भी। बैठ जाएं उनकी दुआओं की छांह में। घंटे... दो घंटे... चार घंटे ... गिले-शिकवे सुनें... दिल खोलकर कह लेने दें उन्हें... जी भर कर कहें अपनी भी। उनके लाड़-प्यार और तजुरबों की खुशबुएं आपके दिल के चमन को बाग-बाग नहीं कर दें तो फिर कहें मुझसे...।
आपकी दरो-दीवार से चिपकी बोगन-बीलिया बड़े अरसे से तरस रही है आपसे बातें करने को... तो आज हो ही जाए निगाहे-करम। गौर से देखें उनकी खूबसूरती और सूखे पत्तों को हटाते हुए करें गुफ्तगू। किशोर कुमार की यूडलिंग और शम्मी कपूर की याहू के साथ घर-आंगन में खडे दरख्तों को पानी दें। हरी दूब में बैठकर कुछ देर बेमतलब ही मुस्कराएं... गुनगुनाएं... हजारों-हजार मायने आपके सामने सिर उठाकर खड़े हो जाएंगे।
शाम को अपने हिस्से की फुलझड़ियों और आतिशबाजी के साथ तशरीफ ले जाएं उन इलाकों में ... अपने ही शहर की उन बस्तियों में, जहां दो जून की रोटी को तरसते मिनख और दूध के लिए बिलबिलाते मासूम अपनी जिंदगी से जूझ रहे होंं। उनके साथ बिताएं एक शाम... वहां बांटें अपनी खुशियां। दिवाली को क्या ये हक नहींं कि उनके भी घर जाए। ... तो जनाब आप जरा सी हरकत में आकर अपना फर्ज निभाएं तो उसे मिले अपना हक और आपको मिले सुकून...ढेर सारा।
नजर फैलाएं अपने आस-पड़ौस में। ऐसे भी कई घर होंगे जिनकी मुंडेरों पर किसी वजह से आज दीये नहीं जले। कड़ाही भी नहीं चढ़ी। उनकी उदासियों में शिरकत कर उन्हें मुस्कराहटें बांटें। गले मिलकर उनकी नम आंखों के आंसू पौंछें। आपकी हमदर्दी बेशक उन्हें ये बताने में कामयाब होगी कि उन्होंने जितना खो दिया, उससे हजार गुना चीजें यहां मौजूद हैं जिंदगी में उनके लिए।
गांव-गुवाड़ में बड़े-बूढ़ों के पैर छूकर, राम-राम कर उनके पास बैठें। 'कागज की कश्ती`, 'बारिश का पानी` और 'वो खेल, वो साथी, वो झूले-वो दौड़ के कहना आ छूले` के दिनों की याद उन्हें कराते हुए उनकी आंखें में उभरी 'वो दिन हवा हुए, जब पसीना गुलाब था` की मीठी शिकायत सुनें। आज के दौर की महंगाई का जिक्र कर उनसें सुनें उस जमाने के भाव-ताव, जब एक रुपए में बीसियों किलो घी आ जाता था और कई मन अनाज। यह भी सुनें कि जब देश भर में मजहब के नाम पर मार-काट मची थी, उन लम्हों में कैसे हमारे पुरखों ने राम-रहीम का भेद भुलाते हुए एक दूजे को गले लगाकर भाईचारे का मजहब निभाया था।
और हां, याद आया... बहुत दिन हुए किसी की स्नेहिल चिट्ठी पढ़े... और खत लिखे हुए भी तो एक अरसा बीत गया। तो कागज-कलम उठाएं और रोज एक चिटठी लिखने की कसम खाकर बस बैठ ही जाएं... और लिख डालें अपने प्यारे काका... ताऊ... मामा... नानी... बुआ... भाई... भतीजे या किसी दोस्त को। ऊर्जा, ऊष्मा और अपणायत से लबालब एक खत। भई, ये तो आप भी मानते होंगे कि हमारे साथ बोलती-सांस लेती इन चिटि्ठयों में जो महक है, दो पांच बटनों के एसएमएस में वो बात नहीं। तो एक बार अपने दिल की सुनें और फिर देखें, अगली दिवाली तक कैसे आपके पास भी अपनों के प्यार से लबरेज खतों को ढेर लग जाएगा। बंद हो गए इस सिलसिले को क्यूं न आज ही और आप ही शुरू करें...।
ऐसे ही और भी बहुत सारी बातें हैं... चीजें है... और काम हैं... जिन्हें आप सोचें, करें और महसूसें उनका जादू। आपकी दिवाली तो खूबसूरत होगी ही, आप दूसरों की जिंदगी में भी भर सकेंगे ढेर सारे रंग। ये न समझिए, आपके बिखेरे रंग यहीं आस-पड़ौस में खोकर रह जाएंगे। इन रंगों की खुशबू इतनी यूनिवर्सल है कि मत पूछिए। असली चीजें तो ऐसे ही चुपचाप, किसी भी हुल्लड़बाजी से दूर अपना आंचल पसारती हैं लोगों के लिए। हमारी दिवाली भी ऐसे ही देश-दुनिया में पसर कर रौनक बिखेरेगी। ... और यह तो होना है, हम तो बस इतना चाहते हैं कि यह ककहरा आप लिखें। इस रोशनी का सेहरा आपके सिर बंधे।
... तो सारे ताम-झाम से फुरसत लेकर चलें गांव-शहर के पास किसी टीलेे की गोद में और सुनहरी रेत में अंगुलियां फिराते हुए आंखें बंद कर वहीं मंदिर की घंटी और मस्जिद की अजान को महसूस करें। प्रार्थना करें सबके सुख... सबकी शांति के लिए। शिकायतें नहीं... शुक्रिया कहें उस असीम शक्ति को सेहत, परिवार, दोस्त, नौकरी और भी तमाम सारी चीजों के लिए... टीले की सुनहरी रेत के लिए भी... शुभ दिवाली।

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Tuesday, September 29, 2009

जिंदगी से बतियाती कहानियाँ

'कुरजाँ' कहानी के एक किरदार के जरिए ''बारीक कहानी बुनना, अतीत की आवारा रूह को अपनी देह पर बुलाने जैसा होता है'' कहने वाली मनीषा कुलश्रेष्ठ इस दुरूहता के बावजूद बारीक कहानी बुनने के फन में खासी माहिर हैं। संवेदनशील सृजनधर्मी अपने पात्रें के दु:ख, तकलीफ और लाचारियों को अपने भीतर जीता है-उसके हिस्से की यंत्रणाओं को झेलता है, तब कहीं जाकर उसके शब्दों में वह क्षमता विकसित होती है जो संवेदनशील पाठक के हृद्य में भी ठीक वैसी ही यंत्रणाओं को जन्म देते हुए उसे झकझोरती-झिंझोड़ती है। इन यंत्रणाओं को अपने भीतर जीने-झेलने की यही क्षमता युवा कथाकार मनीषा को सहज ही एक समर्थ कथाकार के रूप में स्थापित करते नजर आती है। सामाजिक सरोकार से लबरेज मनीषा के कथा संग्रह 'कठपुतलियां' की कहानियों में वर्तमान दौर की विद्रूपताओं, विसंगतियों और बदलावों के चलते असुरक्षित और असहज महसूस करते पात्रों के मनोवैज्ञानिक द्वंद्व के उभार के बीच उनका आत्मविश्वास और उनकी निर्णय क्षमता काबिले-गौर है। लोकरंग की खुशबू से सराबोर कहानियों में लेखिका की आंचलिक पकड़, भाषायी क्षमता और किस्सागाई का अंदाज देखते ही बनता है।

शॉपिंग मॉल, कॉम्प्लेक्स और मल्टीप्लेक्स के इस दौर में जबकि वक्त बीते दौर के रिवाजों को खारिज करते जा रहा है, इसी परिदृश्य में जब संस्कार और मूल्यों के साथ-साथ और भी काफी कुछ मनुष्य के हाथ से भुरभुरा कर फिसल रहा है, तो ये कहानियां पढक़र एक सुकून का सा अहसास होता है कि मनीषा अपनी पूरी क्षमता के साथ इस दौर को बचाए रखने में तो कहीं-कहीं इस बदले वक्त के साथ पूरा दमखम लगाकर दौड़ भी रही हैं। इन कहानियों में कहीं कोई शोरगुल नहीं-कहीं कोई जल्दबाजी या हड़बड़ी नहीं। पूरी तसल्ली के साथ अपनी सधी हुई कलम से वे एक-एक शब्द जमाते हुए जब अपना सृजन लेकर प्रस्तुत होती हैं तो न केवल हर बार हमारे पास से निकलती है अपितु ठीक हमारे भीतर से गुजरती हेै और कभी-कभी तो बड़ी ही शालीन-स्निग्ध बेरहमी से हमारे भीतर का सब-कुछ छलनी कर जाती हैं और कभी शूल बनकर चुभी ही रहती हैं, लाख चाहकर भी उन्हें नहीं निकाल पाते हम। जाहिर है कि लेखिका के भीतर जो द्वंद्व है, वह हम सभी का धर्मयुद्घ है जिसे हम अक्सर अनदेखा छोड़ जाते हैं लेकिन मनीषा हमारे आस-पास हर क्षण घट रहे इन खामोश हादसों से नजर बचाने नहीं देती, बल्कि सीधा हमें उनके सामने लाकर पटक देती हैं, जैसे कह रही हों कि अब बचो !

स्त्री विमर्श को स्वर देती संग्रह की पहली कहानी 'कठपुतलियां' की नायिका सुगना दिखने में भले ही एक पारंपरिक और लाचार किरदार है लेकिन अपने आत्मविश्वास और निर्णय क्षमता के चलते वह आधुनिक स्त्री से भी एक कदम आगे नजर आती है. एक तरफ उसने अपने पति रामकिशन को ही अपना देवता मानकर पारंपरिक भारतीय नारी का प्रतिनिधित्व किया है, वहीं विश्वास के समानांतर खड़े प्रेम के जटिल द्वंद्व के बीच यह निर्णय करके कि वह अपने पति के साथ ही रहेगी, आधुनिक स्त्री के कदमों से कदम मिलाकर चलने का प्रयास किया है। नेह की तरलता से सरोबार यह कहानी क्षण-क्षण समस्याओं से जूझती मरूथल की धरती और यहां के लोगों की जीवट को अभिव्यक्त करते हुए एक निर्णायक संदेश दे जाती है कि हमारी लाख कोशिशों के बावजूद अब 'सुगना' कठपुतली नहीं बनेगी। लोकतत्वों से भरपूर यह कहानी बेमेल विवाह, पेयजल संकट, बाल-विवाह, जनसंख्या (बच्चे दो ही अच्छे- सुगना) जैसे सामाजिक मुद्दों को भी गंभीरता से उठाती है।
'प्रेत-कामना' एक साठ वर्ष के रिटायर्ड प्रोफेसर के हृद्य में युवा होते प्रणय के जरिए उम्र के आखिरी मुकाम पर एकाकी हुए व्यक्त की जिंदगी को लेकर एक नया ही नजरिया पेश करती है। 'जीवन से ही छिटक गया हूं अब... कहीं से छूट गया है मेरा सिरा... एक निरा प्रेम बनकर रह गया हूं मैं...' कहने वाला निराश, हताश और कुंठित प्रोफेसर कहानी के अंत में दृढ़ नजर आने लगता है। ताउम्र पत्नीव्रत होकर जिए रिटायर्ड प्रोफेसर का जीवन के इस मोड़ पर स्वयं से आधी उम्र की आधुनिका अणिमा से प्रेम यहां भी खासे मनोवैज्ञानिक द्वंद्व को जन्म देता है। एक तरफ 'एकाकी पिता को सिहराती, स्वयं को एक स्त्री के साथ सहवासरत होते हुए देख लिए जाने की भीषण ग्लानि' है तो दूजी ओर उपेक्षित दृष्टिकोण रखने वाले बेटे को दृढ़ और आत्मविश्वास से भरपूर प्रत्युत्तर। कहानी युवा पीढ़ी की बुजुर्गोंं के प्रति बेरूखी को प्रतिबिंबित करती है तो दूसरी तरफ पारंपरिक प्रतिमानों को तोड़ते प्रेम के नये आयाम स्थापित करती है। मठों-आश्रमों में धर्म के नाम पर हो रहे व्यभिचार का चित्र्ण करती 'रंग-रूप-रस-गंध' प्रेम के एक नये ही रंग को सामने रखती है। पंडों की बुरी नजर की शिकार बाल विधवा जया के मन में बेनु माधव का व्यवहार प्रेम का दीया जलाता है लेकिन इस दीये का प्रकाश उसकी जिंदगी फैले, अंधेरे के पैराकारों की बुरी नजर फिर बेनु को डस लेती है। कहानी में रंगजी की देहरी पर जया का बेनु के लिए दीया जलाना और कहना -''भगवान सच ही में नाथद्वारा गया हो बेनुमाधव, भले ही लौट के ना आये... वहीं बस जाये पर जिंदा रहे।'' सच में प्रेम की पराकाष्ठा ही है। यही प्रेम मनीषा के लेखन की विशेषता है।

कैरियर महत्वाकांक्षाओं को लेकर एयरफोर्स छोडक़र 'भगोड़ा' बने प्रशांत की कहानी एक ओर असंतोष के इस युग में व्यक्ति की अनंत दौड़ भागते रहने की त्रासदी को व्यक्त करती है, वहीं एयरफोर्स जैसी बेहतर दिखने वाली संस्था के भीतर की अव्यवस्थाओं और अफसरों की मातहतों से बदसलूकी के काले पक्ष उजागर करती है। भविष्य की चिंताओं, सामाजिक बहिष्कार की शंकाओं के बीच मृत सपनों और अतीत के अधजले टुकड़ों को कुरेदते प्रशांत को यह कल्पना करके मिल रहा क्रूर सुख कि एक दिन महेश लौटे और एयरपोर्ट पर ही धर लिया जाए, ही इस वक्त की क्रूर त्रासदी है। संकट से घिरे व्यक्ति के लिए बस यही संतोष बचा है कि दु:खों और व्यथाओं से भरी इस दुनिया में वह अकेला नहीं, अपने-अपने हिस्से की तकलीफें सबने बांट रखी हैं। फिर भी पंखनुचे भविष्य को सहलाकर, ताकत समेटकर जीवन की दिशा में उडऩे का प्रशांत का संकल्प शुभ संकेत देता है।
कहानी 'परिभ्रांति' भी प्रेत कामना के प्रोफेसर की तरह रिटायर्ड विधुर कर्नल की त्रसदियों, कुंठा, हताशा और एकाकीपन की अभिव्यक्ति है। यहां एक तरफ है कर्नल का दृढ़, संयमी, स्वंयसिद्घ व्यक्तित्व तो दूसरी ओर है बूढ़े-बीमार विधुर की विक्षिप्तता की हद तक पहुंची मानवीय दुर्बलताएं। कर्नल के नोट में अंकित स्वीकारोक्ति- ''मेरे अस्तित्व के कारको, तुमने मुझे विरासत में एक संवेदनशील हृद्य तो दिया, इसी हृद्य ने जहां मेरे संसार को खुशियों से पूर्ण किया, वहीं यही हृद्य अपनी किस्मत में अकेलेपन का दुर्भाग्य लेकर क्यों आया'' एकाकी जीवन की विडंबनाओं को एकदम सहजता से व्यक्त कर देती है।

अवक्षेप कहानी आदिवासी छात्रवासों में हो रहे यौनशोषण और भ्रष्टाचार का चित्र्ण करती है। कहानी की मुख्य पात्र बेनु के कथन- ''...म्हैं सोच्यो पर्चा माँ पूछोला कि... हम कैसे यहां रहते हैं, €या खाते हैं ? हमें मिलने वाली छातरवर्ती को कौन खा जाता है पण पर्चें में तो होर ही बातां हैं ...'' तथा '' पुलिस? वो हमारे यहाँ की दोनों कंजडिऩें हैं न, उनको ले जाके इंचारज पुलिस को खुश रखता है'' सारी कहानी साफ बयान कर देते हैं। भले ही हम और हमारी सरकारें आदिवासियों के कल्याण की लाख बातें करें, हकीकत कुछ और ही है। आदिवासियों के स्वाभिमान और आत्मसम्मान को भी लेखिका ने उकेरा है।
राजस्थान के सीमावर्ती इलाकों के जीवन पर आधारित 'कुरजाँ' इक्कीसवीं सदी में गुजरने का दंभ भरते आधुनिक मानव के मुँह पर तमाचा है। लोकमानस में फैले अंधविश्वासों और डायन प्रथा जैसी धारणाओं से रूबरू कराते हुए लेखिका रावळे के अत्याचारों के साथ-साथ पुलिस और बीएसएफ के जवानों द्वारा सीमावर्ती क्षेत्रें में किए जाने वाले दुष्कर्मों से भी हमारा परिचय कराती है। नायिका का कथन 'अकेली औरत गोश्त की भुनी हुई नमकीन बोटी से अधिक €या होती है' नारी के प्रति समाज के एक दृष्टिकोण को प्रस्तुत करता है। 'बिगड़ैल बच्चे' कहानी में अपने व्यवहार से उन्मुक्त, स्वच्छंद और लापरवाह से दिखने वाले तीन युवा नई पीढ़ी को कोस रहे जमाने का नजरिया बदल कर रख देते हैं जब कि बुजुर्ग महिला सहयात्र्ी के ट्रेेन से टकरा कर प्लेटफॉर्म पर गिर जाने के बाद उसकी देखभाल करते हैं और इसके लिए अपनी ट्रेन भी छोड़ देते हैं। दूसरी तरफ सिद्घांतों, आदर्शों और मर्यादाओं की दुहाई देने वाले दूसरे सहयात्र्ी अपनी मजबूरियां बताकर घटना को अनदेखा कर देते हैं। दुर्घटनाग्रस्त हिंदू महिला के प्रति मुसलमान डॉ€टर और क्रिश्चियन युवाओं की सुश्रुषा भावना निश्चय ही एक सांप्रदायिक सद्भाव का संदेश भी छोड़ जाती है। कहानी सवाल पैदा करती है कि युवा पीढ़ी को केवल उनके आचरण की उन्मु€तता के चलते संस्कारहीन और आवारा कहकर नकारना, दुत्कारना और कोसना कहां तक उचित है? क्यों भूलते हैं हम कि स्वच्छंदतापसंद ये ही युवा हमारे वर्तमान और भविष्य हैं। 'स्वांग' तकनीकी क्रांति के नाम पर संवेदना खोते समाज की कहानी है। पेंशन और चिकित्सा सहायता के लिए दफ्ृतरों के चक्कर लगाकर निराश लौटे कथानायक राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त गफ्फार खां मेले में स्वांग दिखाकर कुछ रुपए जुटा भी लेते हैं तो क्या, इतने से रुपयों में कैंसरग्रस्त बीवी का इलाज मुमकिन नहीं। जाहिर है कि प्रौद्योगिकी क्रांति और तकनीकी विकास ने स्वांग जैसी परंपरागत कलाओं को तो समाप्त कर दिया लेकिन खुद आम आदमी के लिए दूर की कौड़ी बनी तकनीक खुद एक स्वांग बनकर रह गई है। इन कलाओं ने जाति, धर्म और देश की सरहदों को पार कर आदमीयत के जो रिश्ते कायम किए थे, तथाकथित तरक्की के इस दौर में लुप्त हुए जा रहे हैं। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि कथाकार मनीषा कठपुतलीबाज रामकिशन की तरह कहानियों के डोरे कसने में निष्णात हैं। मामूली सी दिखने वाली चीजों को लेकर परिप€व कथादृष्टि, गहरे मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और सुंदर भाषायी शिल्प के साथ रची गई कहानियां दिल को छू लेती हैं। अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रत्येक वय के व्यक्ित के यौन व्यवहार को पूरी बोल्डनेस के साथ आवाज देने वाली मनीषा अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों से एक क्षण भी विमुख नहीं होती। हां, समस्याओं और घटनाओं को लेकर उनका अपना नजरिया है, जिसकी उपेक्षा हम लाख चाहकर भी नहीं कर सकते। ज्यादातर कहानियां में स्त्र्ी के हालात मुखर हुए हैं, जिन्हें पढक़र अनायास ही प्रभा खेतान का यह वाक्य ''संसार का शायद ही कोई कोना होगा, जो औरतों के आंसुओं से भीगा न हो'' (उपन्यास- अपने-अपने) याद आ जाता है। इस दौर के व्यक्ति की दुश्वारियों, दुश्चिंताओं और दुविधाओं को स्वर देती मनीषा ने एक त्रासद सच को उकेरने की कोशिश के साथ साथ सार्थक प्रतिरोध की कहानियां रची हैं। जिंदगी से करीब होकर बतियाती इन कहानियों में चीजों को देखने के धारदार नजरिए और पैनी कलम से एक पुख्ता मनोवैज्ञानिक असर गहराया है। कहानियों की खूबसूरती यह है कि एक बार शुरू करने के बाद लंबे Žयौरों से भरी होने के बावजूद इन्हें पढऩे को जी चाहता है। बदलते समय के साथ हो रहे छोटे-छोटे परिवर्तन और उनसे उपजी भीतरी-बाहरी जद्दोजहद का बारीकी से चित्रण और मूल्यांकन ही इन कहानियों का मूल स्वर है। निश्चय ही इन कहानियों के साथ मनीषा कथाकार के तौर पर खासी संभावनाएं जगाती हैं और सशक्त भावी लेखन के प्रति आश्वस्त भी करती हैं।

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Sunday, September 6, 2009

हजारों वर्षों का इतिहास समेटे है घांघू

चूरू से मलसीसर और टमकोर जाने वाली निजी बसों से घांघू बस स्टॉप पर उतर कर शायद ही किसी को यह महसूस हो कि महज ६००-७०० घरों की आबादी वाला यह गांव जिला मुख्यालय चूरू और जयपुर जैसे महानगर से भी पहले का सैकड़ों वर्षों का इतिहास अपने भीतर समेटे हुए है। गांव के संस्थापक राजा घंघरान की बेटी लोकदेवी जीण और पुत्रा हर्ष के अद्भुत स्नेह की कहानी भारतीय फिल्म नगरी बॉलीवुड के फिल्मकारों को भी आकर्षित कर चुकी है।

इतिहासकारों की नजर से

एक हजार से भी अधिक साल पुराने इस गांव के सुनहरे अतीत पर यूं तो अनेक इतिहासकारों ने अपनी कलम चलाई है लेकिन इनमें कर्नल टॉड, बांकीदास, ठाकुर हरनामसिंह, नैणसी, डॉ दशरथ शर्मा, गोविंद अग्रवाल के नाम खासतौर पर शामिल है। क्याम खां रासो के मुताबिक, चाहुवान के चारों पुत्रों मुनि, अरिमुनि, जैपाल और मानिक में से मानिक के कुल में सुप्रसिद्ध चौहान सम्राट पृथ्वीराज पैदा हुआ जबकि मुनि के वंश में भोपालराय, कलहलंग के बाद घंघरान पैदा हुआ जिसने बाद में घांघू की स्थापना की। गोविंद अग्रवाल कृत चूरू मंडल का शोधपूर्ण इतिहास के मुताबिक, एक बार राजा घंघरान शिकार खेलने गया। राजा मृग का पीछा करते हुए लौहगिरि( वर्तमान लोहार्गल) तक जा पहुंचा जहां मृग अदृश्य हो गया। राजा वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगा। निकट ही एक सरोवर था जिसमे स्नान करने के लिए चार सुंदरियां आईं। वस्त्रा उतारकर उन्होंने सरोवर में प्रवेश किया। राजा ने उनके वस्त्रा उठा लिये और इसी शर्त पर लौटाए कि उन चारों में से किसी एक को राजा के साथ विवाह करना होगा। मजबूरन, सबसे छोटी ने विवाह की स्वीकृति दे दी। तब राजा ने उसके साथ विवाह किया।

जीण की जन्मभूमि

राजा को अपनी पहली रानी से दो पुत्र हर्ष व हरकरण तथा एक पुत्राी जीण प्राप्त हुई। ज्येष्ठ पुत्रा होने के नाते हालांकि हर्ष ही राज्य का उत्तराधिकारी था लेकिन नई रानी के रूप में आसक्त राजा ने उससे उत्पन्न पुत्रा कन्ह को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। संभवत: इन्हीं उपेक्षाओं ने हर्ष और जीण के मन में वैराग्य को जन्म दिया। दोनों ने घर से निकलकर सीकर के निकट तपस्या की और आज दोनों लोकदेव रूप में जन-जन में पूज्य हैं।

गोगाजी व कायमखां

इसी प्रकार लोकदेव गोगाजी और क्यामखानी समाज के संस्थापक कायम खां भी घांघू से संबंधित हैं। घंघरान के ही वंश में आगे चलकर अमरा के पुत्रा जेवर के घर लोकदेवता गोगाजी का जन्म जेवर की तत्कालीन राजधानी ददरेवा में हुआ। बाद में गोगाजी ददरेवा के राजा बने। गोगाजी ने विदेशी आक्रांता महमूद गजनवी के खिलाफ लड़ते हुए अपने पुत्रों , संबंधियों और सैनिकों सहित वीर गति प्राप्त की। इसी वंश के राजा मोटेराव के समय ददरेवा पर फिरोज तुगलक का आक्रमण हुआ और उसने मोटेराय के चार पुत्रों में से तीन को जबरन मुसलमान बना लिया। मोटेराय के सबसे बड़े बेटे के नाम करमचंद था जिसका धर्म परिवर्तन पर कायम खां रखा गया और कायम खां के वंशज कायमखानी कहलाए।

ऐतिहासिक गढ़ और छतरी

हालांकि हजारों वर्षों पूर्व के सुनहरे अतीत के चिन्ह तो घांघू में कहीं मौजूद नजर नहीं आते लेकिन लगभग ३५० साल पहले बना ऐतिहासिक गढ और सुंदर दास जी की छतरी आज भी गांव में मौजूद है। गांव में जीणमाता, हनुमानजी, करणीमाता, कामाख्या देवी, गोगाजी, शीतला माता सहित ७-८ देवी देवताओं के मंदिर हैं।

वर्तमान में घांघू

एक धर्मशाला तथा जलदाय विभाग के पाँच कुंए हैं जिनसे घर-घर जलापूर्ति होती है। पिछले वर्षों में जलस्तर काफी गिरा है और पानी की सबसे बड़ी समस्या इसका खारापन है। स्थानीय राजकीय संस्थानों में एक वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय, एक बालिका माध्यमिक विद्यालय, एक उच्च प्राथमिक विद्यालय, आंगनबाड़ी केंद्र, पशु चिकित्सा केंद्र, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, दूरभाष केन्द्र , डाकघर, दो बैंक, ३३ के वी विद्युत ग्रिड सब स्टेशन हैं। तीन निजी स्कूलें भी हैं। ग्राम पंचायत घांघू के अंतर्गत घांघू, बास जैसे का, दांदू व बास जसवंतपुरा आते हैं। वर्ष २००१ की जनगणना के मुताबिक ग्राम की जनसंख्या ३ हजार ६५४ है। श्रीमती नाथीदेवी गांव की सरपंच हैं। निजी बसें एवं साधन पर्याप्त हैं लेकिन लोगों को राज्य पथ परिवहन निगम की बसें नहीं चलने का मलाल है।

प्रतिष्ठित व्यक्ति
ग्राम के सर्वाधिक प्रतिष्ठित व्यक्तियों में गंगानगर के पूर्व विधायक सुरेंद्र सिंह राठौड़, बंशीधर शर्मा, डीजी जेल पश्चिमी बंगाल, मो. हनीफ, डॉ मुमताज अली, एथलीट बैंकर्स हरफूलसिंह राहड़, पवन अग्रवाल आदि हैं। राजनीतिक रूप से श्री महावीर सिंह नेहरा, ग्राम सेवा सहकारी समिति अध्यक्ष श्री परमेश्वर लाल दर्जी, लिखमाराम मेघवाल, जयप्रकाश शर्मा, चंद्राराम गुरी आदि सक्रिय हैं। बंशीधर शर्मा द्वारा पश्चिमी बंगाल में किए गए जेल सुधारों को विश्वस्तर पर सराहना मिली है। यहां के लक्खूसिंह राठौड़ श्रीलंका भेजी गई शांति सेना में शहीद होकर नाम अमर कर चुके हैं।
सांप्रदायिक सद्भाव

ग्राम की हिंदु मुस्लिम आबादी में अधिक अंतर नहीं फिर भी यहां लोगों के सांप्रदायिक सद्भाव की जितनी प्रशंसा की जाए, कम है। गांव में ६०-७० दुकानें हैं, जिनसे रोजमर्रा के सामान की पूर्ति हो जाती है। ग्राम में शिक्षा का स्तर काफी बढ़ा है और लोग इस बात के लिए सचेष्ट होने लगे हैं कि उनके बच्चों को पढने के लिए अच्छा वातावरण और विद्यालय मिले। गत वर्षों में अकाल ने लोगों की कमर तोड़ी है लेकिन ग्रामीण सुखद भविष्य के लिए आशान्वित नजर आते हैं। गांव कई रूटों से सड़क से जुड़ा हुआ है लेकिन ग्रामीणों का मानना है कि यदि दक्षिण में बिसाऊ तक सड़क और बन जाए तो लोगों को खासी सुविधाएं मिल जाएं।

बेहतर भविष्य की आशाएं

ग्राम की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर बनी जय जीण माता फिल्म और धारावाहिक के निर्माण ने गांव को नई पहचान दी है। बहरहाल, कुछेक छुटपुट चीजों को दरकिनार कर दिया जाए तो गांव काफी अच्छी स्थिति में है। गांव का इतिहास और विकास दोनों ही इसकी पहचान हैं और वर्तमान स्थिति को देखते हुए भविष्य भी उज्जवल नजर आता है।

पुरातात्विक महत्व
दसवीं शताब्दी में बसा गांव घांघू ऐतिहासिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। इसी काल के हर्ष, रैवासा और जीणमाता अपने पुरातात्विक और ऐतिहासिक महत्व के लिए खासे प्रसिद्ध हैं। हर्षनाथ से मिली पुरातात्विक सामग्री इतिहासवेत्ताओं के लिए खासी महत्वपूर्ण है। हर्ष और जीणमाता गांव से तो घांघू एकदम सीधे-सीधे संबंधित है। इसलिए यहां भी अगर पुरातत्वविदों की नजर पड़े और खुदाई की जाए तो संभव है कि कम से कम दसवीं शताब्दी के इतिहास से जुड़े काफी चीजें यहां मिल सकती हैं। इसी दृष्टि से हुई उपेक्षा के चलते गांव का समूचा गौरव मानो दफन होकर रह गया है। ग्रामीणों का मानना है कि सरकार को अपनी हैरिटेज योजनाओं में घांघू गांव को शामिल करना चाहिए तथा अगर यहां पुरातात्विक दृष्टिकोण से खुदाई हो जाए तो निश्चित रूप से दसवीं शताब्दी और संभवत: उससे भी पुराने इतिहास में कुछ नए पन्ने जुड़ सकते हैं।

Thursday, August 27, 2009

फरमान

परेशां जिंदगी से होकर हमने ये फ़ैसला किया है
परेशां जिंदगी भी हो, क्यों न थोड़ा और जियें हम ।
-'कुमार'

Tuesday, August 25, 2009

कुमार अजय की ग़ज़लें



कोई अनसुना करे तो...


गीत जिंदादिली के गुनगुनाओ ज़ोर से
कोई अनसुना करे तो चिल्लाओ ज़ोर से ।

शक्लें रहें न रहें, हलचलें तो रहेंगी
तस्वीर ठहरे पानी पे बनाओ ज़ोर से ।

वहम जिंदगी के सब धरे रह जायेंगे
कच्चे धागों से रिश्ते, ना आजमाओ ज़ोर से।

मेरे सारे हबीबो-करीबी बेपर्दा हो जायेंगे
हादिसों पे मेरा मुंह ना खुलवाओ ज़ोर से ।

वो दिल टूट जायेंगे जो दर्द से ना टूटे
दोस्तों यूँ ना हमदर्दियाँ ना जताओ ज़ोर से।


हादसों के हसीं मोती ...

तिरे पहलू में बैठकर जी भर के रो लूँगा
नाराज़गी भी निभाऊंगा, इक लब्ज़ न बोलूँगा.

तुम्हारी मुहब्बत में दर्द के दरिया से कभी
निजात हो भी गई तो फिर से दिल डुबो लूँगा

तुझे मुझसे डर है मुझे तुम्हारी फ़िकर है
आखिर मैं क्यूँ ज़हर तुम्हारी जिंदगी में घोलूँगा.

इस घने जंगल में आदमी से डरता हूँ
कोई जानवर मिले तो तय है साथ हो लूँगा.

मेरी जेब में हादसों के हसीं मोती भरे हैं
वक्त मिला तो उन्हें आंसू के धागे में पिरो लूँगा.

बाहर दम घुटे हैं इक कब्र बख्स दे मौला
तिरे बन्दों से नज़र बचा के चैन से तो सो लूँगा.



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मुझे तुम भले लगे...

हर सवाल पर जीया, हर जवाब में मरा
किताब का कीडा था मैं किताब में मरा

इस शहरी का देहात में मुश्किल है गुजारा
कुए का मेंढक जैसे तालाब में मरा

हकीकतों से मेरी जीते-जी भी न बनी थी
ये ही मजबूरी थी मरा तो भी ख्वाब में मरा.

ये जो पत्थर में ढला है चौराहे पे खडा
आदमी जिंदादिल था सो इन्कलाब में मरा

मरना तो सबको था मेरी किस्मत अच्छी थी
लोग काँटों में मरे, मैं गुलाब में मरा.

मैदां में मुझे हराता, किसकी औकात थी
मैं जंग में भे लहू के हिसाब में मरा.

सुनते हैं दुनिया में अच्छे भी लोग हैं
मुझे तुम भले लगे, मैं इन्तिखाब में मरा.

मैं नई सदी का मोर पाँव देखकर रोया
जूते में दम घुटा और जुराब में मरा.

दीवाना पत्थरों में मरता मुमकिन था
जन्नत नसीब था, जुल्फों के हिजाब में मरा.