Thursday, February 16, 2017

कानूरू री चौधरण

Thursday, February 2, 2017

Monday, December 19, 2016



जो होगा देखा जाएगा...
मुझसे चुप न रहा जाएगा
जो होगा, देखा जाएगा।
आज रात भर पी लेने दो
बाकी कल सोचा जाएगा।
दुनिया के झगड़े सब झूठे
साथ हमारे क्या जाएगा।
इक पत्थर को दिल दे बैठे
काफिर हमें कहा जाएगा।
तेरे जुल्म का दिल रखेंगे
हंसकर जख्म सहा जाएगा।

Friday, December 16, 2016

चुनौती

तुम्हारी आंखें चमक रही थीं
होठों पर तैर रही थी मुस्कराहट
तुम्हारी देह में एक तेवर था
और गर्मजोशी से भरा था
एक-एक शब्द.
इतने भरोसेमंद स्वर में
तुमने कहा था
आने वाले हैं अच्छे दिन
कि शादी का झांसा देकर
रोज हो रहे बलात्कार,
आभूषण चमकाने के नाम पर
हो रही सोने की ठगी,
एक महीने में रकम
दुगुनी करने के वायदों
और असाध्य बीमारियों के
गारंटेड इलाज के दावों की
खबरों और विज्ञापनों
के बीच
हजारों साल से
ठगे जा रहे मुझ अबोध के पास
नहीं था कोई कारण
यकीन नहीं करने का.
तभी तो
तुमने जब दिया मेरी उम्मीदों को
अपना लच्छेदार स्वर,
भीड़ में बैठा मैं भी
दोहरा रहा था
अच्छे दिनों को लेकर
अपनी दबी हुई ख्वाहिशें
तुम्हारी मुस्कराहटों में छिपे छल
तुम्हारी आंखों में दबी धूर्तता
तुम्हारे आश्वासनों में छिपे जुमलों
तुम्हारी गर्मजोशियों में छिपी मंशाओं
और तुम्हारे तेवर में लिपटे
खंजरों से बेखबर.

तो भी सुनो!
सर्वकालिक तौर पर
सबसे अधिक
छला गया समय मैं
तुम्हें कह रहा हूं
तुम जैसे हजारों जुमलेबाज
मिलकर भी
नहीं नष्ट कर सकते
अच्छे दिनों की मेरी आशाओं को
सुनो, उस बार तुमने कहा था
इस बार मैं कह रहा हूं
अच्छे दिन आने वाले हैं
रोक लेना तुम,
रोक सको यदि।

-कुमार अजय
(5 अक्टूबर 2016)

Thursday, December 15, 2016

एक लब्ज न बोलूंगा...
तेरे पहलू में बैठकर जी भर के रो लूंगा
नाराजगी भी निभाऊंगा, एक लब्ज न बोलूंगा।
तुम्हारी मुहब्बत में दर्द के दरिया से कभी
निजात हो भी गई तो फिर से दिल डुबो लूंगा।
तुझे मुझसे डर है, मुझे तुम्हारी फिकर है
आखिर मैं क्यूं जहर तेरी जिंदगी में घोलूंगा।
इस घने जंगल में आदमी से डरता हूं मैं
कोई जानवर मिले तो तय है साथ हो लूंगा।
मेरी जेब में हादसों के हसीन मोती भरे हैं
वक्त मिला तो आंसू के धागे में पिरो लूंगा।
बाहर दम घुटे है, एक कब्र बख्श दे मौला
तेरे बंदों से नजर बचाके चैन से तो सो लूंगा।

Wednesday, December 14, 2016

इतना भी खामोश ना रह...

इतना भी खामोश ना रह
उसकी सुन, अपनी भी कह।

कभी-कभी धारा को मोड़
और कभी धारा में बह।

दुनिया के ताने सुनता है
उसकी भी दो बातें सह।

उसकी हस्ती क्या जानूं
तह के नीचे कितनी तह।

अहम के सूरज को थाम
वरना तुम्हें रोकेगा वह।

—कुमार अजय

Wednesday, August 24, 2016

सांस्कृतिक क्लब कार्यशाला, रमसा कार्यालय, सीकर
24 अगस्त, 2016
युवा पुरस्कार 2013, साहित्य अकादेमी,
जोधपुर, पांच फरवरी 2014
जिला प्रशासन, सीकर की ओर से प्रशस्ति पत्र, स्वाधीनता दिवस 2016
स्वर्ण पदक, राजस्थानी एमए, महाराजा गंगासिंह विश्वविद्यालय, बीकानेर, वर्ष 2010

Wednesday, October 8, 2014

संजीवणी

साहित्य अकादेमी से प्रकाशित राजस्थानी कविता संग्रह
खांडी मूरतां बिचाळै

उर्दू कहाणी संग्रह शिकस्ता बुतों के दरमियान का राजस्थानी अनुवाद... साहित्य अकादेमी नई दिल्ली से प्रकाशित

एकता प्रकाशन, चूरू—331001 से प्रकाशित राजस्थानी कहानी संग्रह

Saturday, February 1, 2014

कहना ही तो कहो/कुमार अजय/ हिन्दी कविता संग्रह/2013/ एकता प्रकाशन, चूरू—331001, राजस्थान/ ISBN : 978—93—83148—08—0 —

Wednesday, December 25, 2013

Wednesday, September 28, 2011

रत्नकुमार सांभरिया को वर्ष 2011 का घासीराम वर्मा साहित्य पुरस्कार

संवेदनाओं के साथ आक्रोश को आधार बनाती हैं सांभरिया की कहानियां - संजीव

चूरू के सूचना केंद्र में प्रयास संस्थान की ओर से रत्नकुमार सांभरिया को वर्ष 2011 का घासीराम वर्मा साहित्य पुरस्कार

चूरू, 24 सितंबर। हिंदी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार तथा सूचना एवं जनसंपर्क विभाग के सहायक निदेशक रत्नकुमार सांभरिया को उनकी पुस्तक ‘खेत और अन्य कहानियां’ के- लिए वर्ष 2011 का घासीराम वर्मा साहित्य पुरस्कार प्रयास संस्थान की ओर से शनिवार को चूरू के सूचना केंद्र में आयोजित समारोह- प्रदान किया गया। प्रख्यात गणितज्ञ डॉ घासीराम वर्मा की अध्यक्षता में हुए समारोह में ख्यातनाम कथाकार-संपादक संजीव, साहित्यकार अजय नावरिया व अन्य अतिथियों ने उन्हें पुरस्कार स्वरूप शॉल, श्रीफल, प्रमाण पत्र, प्रतीक चिन्ह व पांच हजार एक सौ रुपए का चैक प्रदान किया।

समारोह के मुख्य अतिथि, प्रख्यात कथाकार एवं जनचेतना के प्रगतिशील मासिक ‘हंस’ के कार्यकारी संपादक संजीव ने इस मौके पर कहा कि रत्नकुमार सांभरियां की कहानियां शोषित समाज की संवेदना के साथ-साथ उनके आक्रोश को अपना आधार बनाती हैंं। उन्होंने कहा कि सांभरिया के रचना संसार में आंचलिकता है और ये ठेठ गांव की भाषा में अपनी बात कहते हुए गांव के छोटे-छोटे डिटेल्स देते हैं। उन्होंने कहा कि कोई गांव की बात करता है तो उसमें या गलत है, जब हमें शहर की बातों से कोई गुरेज नहीं है। सांभरिया के पात्र दया की भीख नहीं मांगते, वे अपने अधिकार की बात करते हैं। उन्होंने कहा कि कहानी यथार्थ को बदलने की पहली कोशिश करते हुए यथार्थ के समानांतर एक सृष्टि की रचना करती है। उन्होंने कहा कि शिक्षा से लोगों की वैयतिक उन्नति तो हो रही है, लेकिन उन उन्नत लोगों को समाज की दशा बदलने के लिए भी काम करना चाहिए। उन्होंने साहित्यप्रेमियों का आह्वान किया कि वे अच्छे साहित्य के प्रचार-प्रसार के लिए काम करेंं।

समारोह के विशिष्ट अतिथि, प्रख्यात कथाकार एवं जामिया मिलिया इस्लामिया के सहायक प्रोफेसर अजय नावरिया ने कहा कि रत्नकुमार सांभरिया दलित विमर्श से कहीं आगे दलित चेतना के लेखक हैं।एक ही समय में एक व्यति वैयतिक भी होता है और सामाजिक भी लेकिन जब तक हम जातिवाद के पिंजरे बाहर नहीं निकलेंगे, एक आधुनिक और बेहतर समाज की संरचना हो ही नहीं सकती। समाज को बदलने के लिए हमें अपने जातिवादी संस्कारों व परंपराओं से बाहर आना ही होगा। उन्होंने कहा कि एक जाति के हित को जब तक दूसरी जाति का अहित समझा जाएगा, तब तक व्यवस्था में बदलाव की बात बेमानी है। क्रांति तभी होगी, जब सबके हित और अहित एक हो जाएंगे। उन्होंने कहा बुद्धिजीवी ही जब जातिवादी हो जाता है, तो वह पूरी कौम को नष्ट करने का षडयंत्र रचता है। उन्होंने कहा कि भारत में सभी जातियों ने अपने अंदर भी एक अनोखा भेदभाव का ढांचा बना रखा है। उन्होंने कहा कि- हिंदी के साथ यह बड़ी त्रासदी रही कि हमने बोलचाल की भाषा को छोड़कर कृत्रिम भाषा रचने का प्रयास किया। समारोह के मुख्य वता एवं जेएनयू के सहायक प्रोफेसर गंगासहाय मीणा ने कहा कि सांभरिया की कहानियों में आंचलिक पुट होने के बावजूद ये एक व्यापक फलक लिए हुए हैं और इनकी कहानियां डॉ अंबेडकर के मिशन को एक रचनात्मक अभिव्यति प्रदान करती हैं। उन्होंने कहा कि साहित्यकार को समाज में सही विचारधारा की स्थापना के लिए कार्य करते हुए वंचित व शोषित तबके के पक्ष में खड़ा होना चाहिए। उन्होंने कहा कि साहित्यकार को वैचारिक प्रतिबद्धता का निर्वहन करते हुए भी यथार्थ के साथ धोखा नहीं करना चाहिए। शोषण सिर्फ ताकत से नहीं होता है, उसके पीछे भी विचारधारा ही अधिक प्रभावी होती है। उन्होंने कहा कि साहित्य के जरिए समतामूलक समाज की स्थापना हमारा लक्ष्य होना चाहिए। उन्होंने कहा कि शिक्षा वह मूलमंत्र है जो दलितों का जीवन बदल सकता है।- सम्मानित साहित्यकार रत्नकुमार सांभरिया ने प्रसन्नता जताई कि पुरस्कार के रूप में उनके साहित्य को मान्यता मिली है। उन्होंने कहा कि वे शोषित, गरीब व वंचित तबके को सम्मान दिलाने का प्रयास करते हुए ऎसे कमजोर वर्ग के पात्रों को चुनते हैं, जिनके हृद्य कमजोर नहीं हों। अध्यक्षता करते हुए डॉ घासीराम वर्मा ने कहा कि साहित्य में बहुत शक्ति है और साहित्य समाज का निर्माण करता है। उन्होंने कहा कि साहित्यकार को समाज की विद्रूपताओं को उजागर करते हुए एक बेहतर समाज की स्थापना के लिए सदैव प्रयासरत रहना चाहिए। संचालन करते हुए प्रयास संस्थान के अध्यक्ष दुलाराम सहारण ने बताया कि प्रयास से जुड़े रचनाकार देश की विभिन्न भाषाओं में लिखी गई दस चुनिंदा दलित आत्मकथाओं का अनुवाद राजस्थानी में कर रहे हैं। प्रो. भंवर सिंह सामौर ने अतिथियों का स्वागत किया। युवा साहित्यकार कुमार अजय ने सम्मानित साहित्यकार का परिचय दिया। समारेाह में समारोह केंद्रित स्मारिका प्रयास-7 का विमोचन किया गया। इससे पूर्व दीप प्रज्ज्वलन कर अतिथियों ने समारोह का शुभारंभ किया। सुरेंद्र पारीक रोहित ने सरस्वती वंदना प्रस्तुत की। माल्यार्पण कर अतिथियों का स्वागत किया गया। समारोह में बड़ी संख्या में साहित्यप्रेमी मौजूद थे।

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Friday, September 16, 2011

काव्य गोष्ठी में शिरकत

साहित्य अकादेमी नई दिल्ली की ओर से 13 सितंबर की शाम जयपुर के जवाहर कला केंद्र में काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया। वरिष्ठ साहित्यकार श्री नंद भारद्वाज की अध्यक्षता में आयोजित इस गोष्ठी में श्री गोविंद माथुर, श्री प्रेमचंद गांधी, श्री फारूख इंजीनियर, श्रीमती सुदेश बत्रा, श्रीमती अंजू ढड्ढा मिश्रा व कुमार अजय ने काव्य पाठ किया। इस दौरान मशहूर शायर शीन काफ निजाम सहित बड़ी संख्या में साहित्यप्रेमी मौजूद थे।

Monday, September 5, 2011


बसंती देवी धानुका युवा साहित्यकार पुरस्कार 2011

धानुका सेवा ट्रस्ट फतेहपुर शेखावाटी की ओर से प्रतिवर्ष दिया जाने वाला राजस्थानी भाषा का प्रतिष्ठित श्रीमती बसंती देवी युवा साहित्यकार पुरस्कार - 2011 शनिवार तीन सितंबर को अपनी राजस्थानी पोथी संजीवणी के लिए मुझे प्रदान किया गया। इसी अवसर पर सूरतगढ के सतीश छिंपा को वर्ष 2010 के लिए उनकी ‘डांडी सूं अणजाण’ पुस्तक के लिए श्रीमती बंसती देवी धानुका युवा साहित्यकार पुरस्कार प्रदान किया गया।

शिक्षाविद सांवर शर्मा की अध्यक्षता में फतेहपुर के पंचवटी उद्यान में हुए समारोह में पूर्व जिला प्रमुख सांवर मल मोर, साहित्यकार बैजनाथ पंवार, भामाशाह राधेश्याम धानुका, शंभूप्रसाद खेड़वाल, केसरी कांत केसरी विशिष्ट अतिथि थे।

इस दौरान आयोजित काव्य गोष्ठी में वरिष्ठ कवि भंवर सिंह सामौर, गजानन वर्मा, रामगोपाल शास्त्री, सत्यनारायण इंदौरिया, काशीराम शास्त्री, गोविंद गहलोत, सुनीता भड़िया, संजना, श्याम उपाध्याय, कपिल देवराज आर्य आदि ने अपनी रचनाओं से श्रोताओं को भाव-विभोर कर दिया। ट्रस्टी नरेंद्र धानुका, साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित डॉ चेतन स्वामी, बेणी प्रसाद भाटी, नलिन सर्राफ मुंबर्ई, पुरूषोत्तम धानुका, साहित्य संसद के शिशुपाल सिंह नारसरा, शंकर झकनाड़िया, दुलाराम सहारण सहित अनेक साहित्यकार एवं नागरिक समारोह में मौजूद थे।


Saturday, August 13, 2011

कहना ही है तो कहो.....

कहना ही है तो कहो.....

समय से कुछ मत कहो
मत कोसो समय को
इस बुरे समय से निजात
उसके बस की बात नहीं

कहना ही है अगर तुम्हें
तो कहो पंछियों से
कि वे लौट आएँ
सुबहों में अपने कलरव के साथ

गायों से कहो
कि साँझ होते ही
बछडों के लिए आतुर
रंभाती हुए घर लौटें
नदियों से कहो
फिर कोई राह बनाएँ
हो जाएँ
हरी-भरी पहले की तरह

पहाडों से कहो
पीछे सरकना छोडें और
आदमी के कुटिल इरादों के समक्ष
पहाड हो जाएँ

हवाओं से कहो
कि एयरकंडीशन कमरों से
निकलकर बाहर
खुले मैदानों में आएँ

झरनों से कहो
कि एक बार फिर
लौटे पर्वतों पर
पत्थरों को नहलाएँ

बच्चों से कहो
उतारे समझ का लबादा
मिलकर मचाएँ शोर
आसमाँ सिर पर उठाएँ
और कहो खुद से भी
किसी शाम तो दफ्तर से जल्दी घर लौटे
और नन्ही बिटिया से तुतलाकर बतियाएँ
हाँ, इन सब से कहो
लेकिन समय से कुछ मत कहो
क्योंकि इस बुरे समय से निजात
उसके बस की बात नहीं ।

Tuesday, August 9, 2011

रोने के लिए उपयुक्त नहीं है ये समय

रोओ मत
रोने के लिए
उपयुक्त नहीं है ये समय ।

बच्चे पढ रहे हैं
तुम रोओगे
तो डिस्टर्ब होगी
उनकी पढाई
उनके परचे बिगड जाएँगे ।

बीवी देख रही होगी
टीवी पर सास-बहू के किस्से
तुम्हें रोते देखेगी तो झल्लाएगी
एक तो घर के इतने सारे काम
और ऊपर से
तुम्हारे ये घडयाली आँसू ।

दोस्तों के सामने तो बडी फजीहत होगी
वे सोचेंगे कि उधार लिए रुपयों की
वापसी टालने के लिए
तुम रो रहे हो शायद ।

मकान मालिक आएगा
और कहेगा कि ये मकान
तुम्हें रहने के लिए दिया गया है
रोने के लिए नहीं
रह नहीं सकते तुम
औरों की तरह चुपचाप ।

पडोसी हँसने लगेंगे
या नाराजगी जताएँगे
क्यों शोर मचा रहे हो
देखते नहीं
बच्चों के इम्तिहान सिर पर हैं ।

बूढे माँ-बाप भी तुम्हें रोते हुए देखेंगे
तो खुद को कहाँ रोक पाएँगे
फिर तुम्हें मुसीबत होगी कि तुम खुद रोओगे
या उन्हें ढाढस बँधाओगे
इसलिए मेरी सलाह मानो
फिर कभी फुरसत में रो लेना
जब बूढे माँ-बाप चले जाएँ
देवदूतों को लेकर अनंत यात्रा पर
बच्चे पढ-लिखकर
किसी बडे शहर में सैटल हो जाएँ
और बीवी व्यस्त हो
किसी किटी पार्टी में
तब घर आकर दबे पाँव
रो लेना चुपचाप
वैसे भी
रोने के लिए
उपयुक्त नहीं है ये समय ।

Sunday, June 26, 2011

साहित्य अकादेमी व प्रयास संस्थान की ओर से चूरू में राजस्थानी महिला लेखन पर केंद्रित सम्मेलन ‘झीणां सुरां री पड़ताल’ संपन्न

साहित्य अकादेमी नई दिल्ली द्वारा प्रयास संस्थान चूरू के स्थानीय समन्वय से राजस्थानी भाषा में महिला लेखन पर केंद्रित सम्मेलन ‘झीणां सुरां री पड़ताल का आयोजन 25 जून शनिवार को चूरू के होटल सनसिटी पैलेस में किया गया। आयोजन में प्रदेश भर से महिला लेखकों ने शिरकत की।

सम्मेलन का आरंभ साहित्य अकादेमी में राजस्थानी भाषा परामर्श मंडल के संयोजक तथा राजस्थानी के ख्यातनाम साहित्यकार पद्मश्री डॉ चंद्रप्रकाश देवल व अतिथियों ने दीप प्रज्जवलित कर किया। उद्घाटन सतर्् की अध्यक्षता करते हुए डॉ देवल ने कहा कि महिला स्वतंतर््ता के नाम पर प्रचलन में आ रही फैशनेबल चीजें घातक हैं, महिलाओं को उनके वास्तविक हक मिलने चाहिए। उन्होंने कहा कि जब महिलाएं अपने होने को समझेंगी, तब वास्तव में अपने होने की पैरवी कर सकेंगी और तभी कालजयी साहित्य का सृजन होगा। उन्होंने कहा कि महज स्तर््ी होते हुए लिखना ही महिला लेखन नहीं है। उन्होंने कहा कि स्तर््ैण चित्त, स्तर््ैण अनुभव और स्तर््ैण लेखनी के संयोग से राजस्थानी की लेखिकाएं अपने लेखन में आधी आबादी की पीड़ा और संकटों को स्वर देते हुए ऎसा उत्कृष्ट साहित्य सृजन करें कि उस सृजन पर पूरी दुनिया गर्व कर सके। उन्होंने राजस्थानी लेखिकाओं को चुनौती देते हुए कहा कि नारी की स्थिति-परिस्थिति, पीड़ा और चिंता का ऎसा चितर््ण अपने साहित्य में कर दिखाएं कि हम गर्व से कह सकें कि वैसा इससे पहले कभी और किसी भी भाषा में नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि मीरा का नाम लेने मातर्् से काम नहीं चलेगा, हमें उस स्तर के संघर्ष और सृजन की उत्कृष्टताओं को छूने का प्रयास करना होगा। डॉ देवल ने कहा कि राजस्थानी साहित्य में आलोचना के विकास की फिलहाल सर्वाधिक जरूरत है। उन्होंने राजस्थानी में महिला लेखन पर केंद्रित पतर््-पतिर््काओं के प्रकाशन की आवश्यकता जाहिर की।

बीज भाषण में प्रो. अर्जुनदेव चारण ने कहा कि एक रचनाकार हमेशा यह कोशिश करता है कि प्रकृति और मनुष्य के बीच बढती जा रही दूरी किस तरह से कम की जाए। उन्होंने कहा कि राजस्थानी महिला लेखन में प्रकृति से गहरा रिश्ता झलकता है। उन्होंने कहा कि जिस तरह राह भटकते बेटे को घर में मां समझाती है, उसी के व्यापक परिपे्रक्ष्य में पूरे समाज के मार्गदर्शन की जिम्मेदारी लेखिकाओं पर है। उन्होंने कहा कि राजस्थान में महिला विमर्श की इतनी सशक्त बुनियाद रही है कि यहां मीरां ने 500 वर्ष पहले स्तर््ी के अस्तित्व और मनुष्य के अस्तित्व की लड़ाई लड़ी। आज हमें मीरां की ही उसी िंचंंतन परंपरा को आगे बढाने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि राजस्थान की परिस्थितियों को देखते हुए यहां महिला लेखन की संभावनाएं सर्वाधिक है, आवश्यकता इस बात की है कि इन संभावनाओं को मूर्त रूप दिया जाकर सशक्त साहित्य सृजन हो। उन्होंने कहा कि हमारे पितृसत्तात्मक समाज में स्तर््ी को हर युग में हाशिये पर रखने की कोशिश की गई है। हमारे समाज ने स्तर््ी को महिमामंडित तो खूब किया लेकिन अधिकार नहीं दिए। उन्होंने कहा कि वर्तमान समय में व्यक्ति के पास प्रेम के लिए भी स्पेस नहीं बचा है और इससे भी बड़ी विडंबना यह है कि हम प्रेम करने के योग्य ही नहीं रहे हैं। हम खुद से ही अजनबी होते जा रहे हैं और ये आत्म-उन्मूलन के लक्षण हैंं।

प्रयास संस्थान के अध्यक्ष दुलाराम सहारण ने आभार व्यक्त करते हुए कहा कि अकादमी ने उन पर आयोजन के लिए भरोसा जताया, इसके लिए वे आभारी हैं। उन्होंने प्रदेश भर से आए साहित्यकारों व साहित्यप्रेमियों का भी आभार जताया। इस मौके पर अकादेमी के सहायक संपादक शांतनु गंगोपाध्याय ने स्वागत भाषण देते हुए अकादेमी की गतिविधियों की जानकारी दी। उद्घाटन सतर्् का संचालन कमल शर्मा ने किया।

राजस्थानी के पद्य लेखन पर चर्चा ः-

उद्घाटन के बाद राजस्थानी पद्य लेखन पर आयोजित प्रथम सतर्् की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार डॉ तारालक्ष्मण गहलोत ने कहा कि समाज में निरंतर आ रहे बदलाव के साथ महिला लेखकों के समक्ष खासी चुनौतियां उभर कर आ रही हैंं और उनसे बचकर नहीं निकला जा सकता है। महिला लेखकों को उन चुनौतियों का सामना करते हुए श्रेष्ठ साहित्य का सृजन करना होगा। उन्होंने कहा कि स्तर््ी को केंद्र मेंं रखकर पुरूष साहित्यकारों ने भी अच्छा लेखन किया है, जिसे दरकिनार नहीं किया जा सकता है। साहित्यकार डॉ उषा कंवर राठौड़ ने ‘मध्यकाल सूं आधुनिक काल रै दौर मांय राजस्थानी रौ महिला पद्य लेखन विषय पर अपने पतर््वाचन में कहा कि राजस्थान की सांस्कृतिक चेतना, इतिहास, दर्शन, भक्ति, नीति और आज का उदात्त मानवीय भाव व चिंतन यहां के महिला लेखन की ताकत बनता जा रहा है। उन्होंने कहा कि आधुनिक महिला लेखन में तर्क व चिंतन की प्रधानता है जिससे भाव व विचार असरदार ढंग से सामने आए हैं। डॉ प्रकाश अमरावत ने अपने पर्चे मेंं कहा कि नए विषय, भाव, बिंब, कथ्य और नए प्रयोेगों के साथ राजस्थानी महिला लेखन लगातार आगे बढ रहा है। उन्होंने कहा कि परंपरागत छंदों के अलावा राजस्थानी पद्यकार डांखळा, सोनेट, हाइकू, क्षणिकावां व टुणकला के जरिए भी साहित्य को समृद्ध कर रहे हैं। डॉ चांदकौर जोशी ने अपने पतर्् में कहा कि राजस्थानी महिला लेखकों ने सराहनीय सृजन किया है लेकिन इस दिशा में अभी बहुत काम शेष है। उन्होंने कहा कि महिला लेखकों को समाज में फैली कुरीतियों को केंद्र में रखकर साहित्य का सृजन करना चाहिए। इस सतर्् का संचालन युवा रचनाकार विश्वनाथ भाटी ने किया।

राजस्थानी गद्य लेखन पर विचार-विमर्र्श ः-

साहित्यकार डॉ प्रकाश अमरावत की अध्यक्षता में आयोजित दूसरे सतर्् में साहित्यकार विमला भंडारी ने ‘मेवाड़ रै संदर्भ मांयं राजस्थांनी महिला लेखन विषय पर अपना पतर्् पढते हुए कहा कि राजस्थानी साहित्य में नारी की वीरता और मातृभूमि की भक्ति से भरपूर चरितर्् को प्रमुख रूप से उभारा गया है। उन्होंने कहा कि राजस्थानी साहित्य के आकाश में प्रकाश की उजली किरण दिख रही है और राजस्थानी साहित्य का भविष्य उज्जवल है। पुष्पलता कश्यप ने ‘कथा जगत मांय राजस्थांनी महिला लेखन विषय पर पतर्् पढते हुए कहा कि लेखिकाओं को घर-संसार से आगे बढकर वैश्विक चिंताओं और मसलों पर भी अपनी कलम चलानी चाहिए। उन्होंने कहा कि विभिन्न विधाओं में राजस्थानी लेखिकाओं ने गद्य साहित्य को समृद्ध किया है। द्वितीय सतर्् का संचालन तारानगर के युवा साहित्यकार देवकरण जोशी दीपक ने किया।

कविता पाठ के साथ हुआ समापनः

समापन सतर्् में सम्मेलन का सार प्रस्तुत करते हुए युवा रचनाकार गीता सामौर ने कहा कि आधुनिक राजस्थानी महिला लेखन में और अधिक सशक्त एवं कालजयी सृजन की दरकार है। उन्होंने कहा कि लेखन की सार्थकता तभी है जब हृद्य की बात हृद्य तक पहुंचे। उन्होंने कहा कि राजस्थानी के पुरूष लेखकों ने भी स्तर््ी विमर्श को लेकर जोरदार साहित्य का सृजन किया है।

इस सतर्् में कवयितिर््यों द्वारा प्रस्तुत रचनाओं ने श्रोताओं का मनोरंजन किया। डॉ कविता किरण ने राजस्थानी गजल ‘जीवड़ा मांय ढळगी रात...’ सुनाकर खूब दाद पाई। मीराबाई पर केंद्रित उनकी कविता भी खूब सराही गई। शकुंतला रूपसरिया ने ‘रोतां नैं छोड गई रमकूड़ी प्यारी...’ के जरिए पिता के आंगन से बेटी की विदाई का मार्मिक चितर्् प्रस्तुत किया तो ‘प्यारा म्हारा साजणिया सरदार... पेश कर भी सराहना पाई। डॉ शारदा कृष्ण ने ‘बीतगी आधी सदी इण आस में...’ के साथ-साथ अपनी लघु-कविताएं प्रस्तुत कीं।

सम्मेलन में वरिष्ठ साहित्यकार बैजनाथ पंवार, भंवर सिंह सामौर, मुकन सिंह सहनाली, सोहन सिंह दुलार, रियाजत अली खान, डॉ जमील चौहान, श्याम सुंदर शर्मा, रामगोपाल बहड़, माधव शर्मा, हरिसिंह सिरसला, महावीर नेहरा, बीरबल नोखवाल सहित बड़ी संख्या में गणमान्य नागरिक व साहित्यप्रेमी मौजूद थे।

Thursday, June 23, 2011

आ लौट के आजा मेरे मीत...

अद्भुत प्रतिभा वाले गीतकार थे चूरू के पं. भरत व्यास

‘मुन्नी बदनाम’ और ‘शीला की जवानी’ जैसे भड़कीले, फूहड़ और कनफोड़ू गानों के इस दौर में सुमधुर-सार्थक गीतों के रसिकों को हिंदी फिल्मों के प्रसिद्ध गीतकार भरत व्यास की याद आना स्वाभाविक ही है। उनकी कलम से रचा गया एक-एक गीत हमारे सिने-जगत और साहित्य जगत दोनों के लिए समान रूप से अनमोल धरोहर है। अद्भुत प्रतिभा के धनी पं. भरत व्यास ने फिल्मों के लिए जो भी लिखा, वह उच्च कोटि का साहित्य है और उन्हें अपनी इस विशेषता के लिए युगों-युगों तक कृतज्ञता के साथ याद किया जाता रहेगा।

चूरू के पुष्करणा ब्राह्मण परिवार में विक्रम संवत 1974 में मार्गशीर्ष कृष्णा अष्टमी को जन्मे भरत व्यास जब दो वर्ष के थे, तभी उनके पिता का निधन हो गया और इस तरह कठिनाइयों ने जीवन के आरंभ में ही उनके लिए एक बड़ी चुनौती पेश कर दी। भरत जी बचपन से ही प्रतिभा संपन्न थे और उनके भीतर का कवि छोटी आयु से ही प्रकट होने लगा था। भरतजी ने पहले दर्जे से लेकर हाई स्कूल तक की शिक्षा चूरू में ही प्राप्त की और चूरू के लक्ष्मीनारायण बागला हाईस्कूल से हाई स्कूल परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने आगे की पढाई के लिए बीकानेर के डूंगर कॉलेज में प्रवेश लिया। स्कूल समय में ही वे तुकबंदी करने लगे थे और फिल्मी गीतों की पैरोडी में भी उन्होंने दक्षता हासिल कर ली। मजबूत कद-काठी के धनी भरत व्यास डूंगर कॉलेज बीकानेर में अध्ययन के दौरान वॉलीबाल टीम के कप्तान भी रहे।

बीकानेर से कॉमर्स विषय में इंटर करने के बाद नौकरी की तलाश में कलकत्ता पहंचे लेकिन उनके भाग्य में शायद कुछ और ही लिखा था। इस दौरान उन्होंने रंगमंच अभिनय में भी हाथ आजमाया और अच्छे अभिनेता बन गए। अभिनेता-गीतकार भरत व्यास ने शायद यह तय कर लिया था कि आखिर एक दिन वे अपनी प्रतिभा का लौहा मनवाकर रहेंगे। चूरू में वे लगातार रंगमंच पर सक्रिय थे और एक अच्छे रंगकर्मी के रूप में उनकी पहचान भी बनी लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर पहली कामयाबी उन्हें तब मिली, जब कलकत्ता के प्राचीन अल्फ्रेड थिएटर से उनका नाटक ‘रंगीला मारवाड़’ प्रदर्शित हुआ। इस सफलता से भरत जी को काफी प्रसिद्धि मिली और यहीं से उनके कामयाब जीवन की शुरुआत हुई। इस नाटक के बाद उन्होंने ‘रामू चनणा’ एवं ‘ढोला मरवण’ के भी जोरदार शो किए। ये नाटक स्वयं भरतजी ने ही लिखे थे। कलकत्ता में ही प्रदशित नाटक ‘मोरध्वज’ में भरत जी ने मोरध्वज की शानदार भूमिका निभाई। दूसरे विश्वयुद्ध के समय भरत व्यास कलकत्ता से लौटे और कुछ समय बीकानेर में रहे। बाद में एक दोस्त के जरिए वे अपनी किस्मत चमकाने सपनों की नगरिया मुंबई पहुंच गए, जहां उन्हें अपने गीतों के जरिए इतिहास बनाना था।

फिल्म निर्देशक और अनुज बी एम व्यास ने भरतजी को फिल्मी दुनिया में ब्रेक दिया। फिल्म ‘दुहाई’ के लिए उन्होंने भरतजी का पहला गीत खरीदा और दस रुपए बतौर पारिश्रमिक दिए। भरत जी ने इस अवसर का खूब फायदा उठाया और एक से बढकर एक गीत लिखते गए। सफलता उनके कदम चूमती गई और वे फिल्मी दुनिया के ख्यातनाम गीतकार बन गए। ‘आधा है चंद्रमा, रात आधी..’ ‘जरा सामने तो आओ छलिये’, ‘ऎ मालिक तेरे बंद­ हम’, ‘जा तोसे नहीं बोलूं, घूंघट नहीं खोलूं’, ‘चाहे पास हो चाहे दूर हो’, ‘तू छुपी है कहां, मैं तड़पता यहां’, ‘जोत से जोत जलाते चलो’, ‘कहा भी न जाए, चुप रहा भी न जाए’ जैसे भरतजी की कलम से निकले जाने कितने ही गीत है जो आज बरसों बीत जाने के बाद भी उतने ही ताजा हैं और सुनने वाले को तरोताजा कर देते हैं।

भरत जी ने जब फिल्मी गीत लिखना शुरू किया, उस दौर में गीतों में उर्दू का असर ज्यादा था। ऎसे में भरत जी ने अपने समकालीन गीतकारों को साथ लेकर फिल्मी गीतों में हिंदी के प्रयोग का आंदोलन खड़ा कर दिया। भरत जी के गीतों की सबसे बड़ी खासियत यह रही कि उन्होंने फिल्म की सिचुएशन के हिसाब से कम ही गीत लिखे। बहुत सारी रचनाएं उन्होंने स्वतंत्र रूप से लिखीं, जो बाद में फिल्मों में शामिल होती गईं। उन्होंने फूहड़ता और अश्लीलता का कभी साथ नहीं दिया और यथासंभव इसका विरोध ही किया। हिंदी गीतों के अलावा उन्होंने राजस्थानी फिल्मों के लिए भी गीत लिखे। ‘थांनै काजळियो बणाल्यूं-नैणां में­ रमाल्यूं ...’ जैसे उनके गीतों से राजस्थानी सिनेमा को एक नया आयाम मिला। उन्होंने करीब सवा सौ फिल्मों में गीत लिखे और हमेशा एक लोकप्रिय व सफल गीतकार के रूप में वे इंडस्ट्री में जाने गए।

भरत व्यास ने अपने गीतों म­ें मानवीय संवेदना, विरह-वेदना, संयोग-वियोग, भक्ति व दर्शन का ही समावेश ही नहीं किया, बल्कि उनके गीतों में­ सुरम्यता और भाषा शैली का भी जोरदार समावेश था। उनकी प्रसिद्धि की वजह से बडे-बडे निर्माताओं की फिल्मों में­ गीत लिखने का अवसर उन्ह­ें मिला। भरत व्यास के लिखे अधिकांश गीतों को मुकेश व लता मंगेशकर की आवाज का सौभाग्य प्राप्त हुआ। एक समय तो वी. शांताराम का निर्माण- निर्देशन और पंडित भरत व्यास के गीत एक दूसरे के पर्याय बन गए थे एवं सफलता की गारंटी भी। वैसे भरत व्यास ने लक्ष्मीकांत - प्यारेलाल, कल्याण जी - आनन्द जी, बसंत देसाई, आर डी बर्मान, सी. रामचन्द्र जैसे दिग्गज संगीतकारों के लिए भी गीत रचना की, लेकिन उनकी जबर्दस्त हिट जोड़ी एस एन त्रिपाठी साहब से बनी। बहुआयामी प्रतिभा के धनी भरत व्यास ने न केवल अपने गीतों म­ें देशभक्ति, राष्ट्रीय एकता और बलिदान का संदेश दिया, बल्कि प्रेम से परिपूरित भावनाओं के भी गीत भी लिखे। ’नवरंग‘, ’सारंगा‘, ’गूूंज उठी शहनाई‘, ’रानी रूपमती‘, ’बेदर्द जमाना क्या जाने‘, ’प्यार की प्यास‘, ’स्त्री‘, ’परिणीता‘ आदि ऎसी कई प्रसिद्ध फिल्में­ हैं, जिनमें­ उनकी कलम ने प्रेम भावनाओं से ओत-प्रोत गीत लिखे। 4 जुलाई 1982 को हमसे जुदा हुए भरत व्यास आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके लिखे गीत आज भी चारों ओर गूँज रहे हैं। उनके गीतों के रस में डूबने को उतावला मन रानी रूपमती फिल्म के लिए भरत व्यास के लिखे इस गीत की तर्ज पर बस यही गुनगुनाता है- ‘आ लौट के आजा मेरे मीत, तुझे मेरे गीत बुलाते हैं...।’

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Sunday, May 8, 2011

आरटीआई - लघुकथा

आरटीआई

वह यूं भी बेहद संवेदनशील और आक्रामक नौजवान था लेकिन आरटीआई ने उसकी सक्रियता को और बढा दिया था। अब वह रोजाना एकाध सरकारी दफ्तर में तो आवेदन लगा ही आता। जब देखो, तब आरटीआई से संबंधित कोई न कोई बुकलेट उसके हाथ में होती। ‘सूचना के अधिकार’ का विशेषज्ञ बनता जा रहा था वह।

अचानक, एक दिन वह प्रशासनिक सेवा के लिए चुन लिया गया। पदस्थापन के बाद भी उसके हाथ में कोई न कोई किताब आरटीआई से संबंधित तो रहती ही। एक दोस्त ने आखिर पूछ ही लिया, यार तू अधिकारी बन गया अब, कोई सामाजिक कार्यकर्ता तो है नहीं कि सारा समय ये ही पोथियां लिए फिरता है। अब तेरे किस काम की हैं ये ? नौजवान अधिकारी ने मुस्कराते हुए जवाब दिया, अरे यार पहले तो मैं इस चक्कर में रहता था कि कैसे ज्यादा से ज्यादा सूचनाएं जुटाई जाएं और अब मुझे यह जानने के लिए इनकी जरूरत रहती है कि कैसे आरटीआई में सूचना मांगने वालों को ज्यादा से ज्यादा टाला जाए। (कुमार अजय)

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Friday, April 1, 2011

एक राजस्थानी कविता

खबर

कवरेज सूं बावड़ती थकां

आपूंआप इज होग्यी सांझ माथै

सुणुं हूं कलरव

चिड़कल्यां रो चै‘चाणो

अर

कोसूं हूं खुद नैं

खबरनवीस होवणै सारू

क्यूं‘कै चिड़ियावां रो चै‘चाणो

जाबक इज अरथ नीं राखै

अखबारां सारू।

हां, आपां छापां

चिड़ियावां नैं प्रमुखता सूं

जद कै वां रो चै‘चाणो

दबोच-खसोट लियो जावै,

जद वां रो कलरव

मसळ्यो- कुचळ्यो जावै

कै फेरूं

इण जंगल रै नैमां रो

खासो जाणकार

कोयी सिकारी

चिड़ियावां रै चे‘चाट नै

बदळ देवै

छेकड़लै चीत्कार मांय।

(कुमार अजय)


Thursday, March 31, 2011

कोई टाटा-बिड़ला नहीं थे दादाजी

कोई टाटा-बिड़ला नहीं थे दादाजी

गांव के एक साधारण से आदमी थे

और खेती-बाड़ी, मेहनत-मजदूरी कर गुजारा करते थे

बनिये ने जब गांव में धर्मशाला बनवाई

चौधरी ने कुआ खुदवा दिया

ठाकुर ने मंदिर बनवा दिया

और डिप्टी साहब ने स्कूल में कमरे बनवा दिये

ठीक उन्हीं दिनों में दादाजी ने

गांव के गुवाड़ में एक बड़ का पेड़ लगाया।

पंद्रह अगस्त-छब्बीस जनवरी हो

या दूसरा कोई मौका

जब गांव में कोई कार्यक्रम होता

बनिया, ठाकुर, डिप्टी और चौधरी

बड़ी शान से बैठते थे वहां

और दूसरे सब लोग उन चारों की बड़ी सराहना करते थे

दादाजी भी उसी माठ से बैठते थे

अपने लगाए उस छोटे से दरख्त के पास

लेकिन दादाजी को कभी किसी ने उस तरह नहीं सराहा।

जीण-शीर्ण हुई उस धर्मशाला के पास अब सरकार ने

एक बड़ा सामुदायिक भवन बनवा दिया है

हर मौहल्ले में कुए खुद गए हैं

लेकिन उस बोड़िये कुए में पानी नहीं आता अब

अलबत्ता कचरा जरूर डालते हैं उसमें

आसपास के लोग

स्कूल में इतने बड़े-बड़े हॉल बने हैं

कि लगता ही नहीं

कि डिप्टी साहब के बनवाए कमरे की

कोई जरूरत रही भी होगी यहां।

मंदिर भी अब छोटा और पुराना पड़ गया है

कई बड़े मंदिर जो बन गए हैं

वैसे में मंदिरों में अब कोई आता-जाता नहीं

उस भूतहा मंदिर में तो कोई भी नहीं।

इधर

धर्मशाला, कुए, मंदिर

और स्कूल के कमरे की तरह

कतई अप्रासंगिक नहीं हुआ बड़ का वह पेड़

और न ही कोई दूसरा पेड़

उसे बौना कर पाया

वह आज भी खड़ा है गुवाड़ में

अपनी बांहों के रोज बढते फैलाव के साथ

जैसे खड़े हों दादाजी

हां, वही दादाजी

जो कोई टाटा-बिड़ला नहीं थे

गांव के एक साधारण से आदमी थे।

(कुमार अजय)

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Tuesday, March 22, 2011

राजस्थानी काव्य संग्रह ‘संजीवणी’ का विमोचन

चूरू। साहित्य अकादेमी नई दिल्ली से प्रकाशित कुमार अजय के कविता संग्रह ‘संजीवणी का विमोचन पांच फरवरी 2011 चूरू के सूचना केंद्र में प्रयास संस्थान की ओर से आयोजित समारोह में वरिष्ठ साहित्यकार एवं साहित्य अकादेमी में राजस्थानी भाषा परामर्श मंडल के संयोजक पद्मश्री डॉ चंद्रप्रकाश देवल ने किया।

इस मौके पर डॉ देवल ने कहा कि साहित्यकार का मन समाज की दशा और दिशा पर पसीजता है, झुलसता है और रोता है, तब किसी रचना की उत्पत्ति होती है। विसंगतियों और विद्रूपताओं को देखकर साहित्यकार चुप नहीं रह सकता है। वह किसी फायदे के लिए नहीं लिखता है, यही कारण है कि समाज में साहित्यकार को युगों-युगों तक याद किया जाता है। उन्होंने सुकरात और पाणिनी का उदाहरण देते नए रचनार्धमियों को हिदायत दी कि प्रत्येक परिस्थिति में सच, नीति और न्याय के पक्ष में खड़ा होना चाहिए। उन्होंने कहा कि राजस्थानी में किसी भी नई रचना और पोथी को देखकर उनका खून बढता है। उन्होंने कहा कि दुनिया के सर्वश्रेष्ठ भाषाविद् सुनीति कुमार चाटुज्र्या ने राजस्थानी को उत्कृष्ट भाषा माना था। राजस्थानी दुनिया की सर्वश्रेष्ठ भाषा है और हर दृष्टिकोण से पात्र होने के बाद भी राजनैतिक इच्छाशक्ति के अभाव में हम अपनी मायड़ भाषा की मान्यता के लिए तरस रहे हैं। उन्होंने कहा कि राजस्थानी की मान्यता हमारी अस्मिता का सवाल है और लोकतंत्र का तकाजा है। उन्होंने कहा कि आजादी की जंग में राजस्थान ने अगणित योद्धा दिए हैं। आजादी के बाद भी देश की हिफाजत के लिए शहीद होने वाले लोगों में सर्वाधिक संख्या राजस्थानियों की है, फिर भाषा की मान्यता के नाम पर हमें पीछे क्यों धकेला जाता है। उन्होेंने कहा कि राजस्थान के लोगों ने अपने आत्मोत्सर्ग से वीर रस को अभिव्यक्ति दी है, ऎसा उदारहण दुनिया की किसी दूसरी भाषा में नहीं मिलता। डॉ देवल ने बांकीदास द्वारा 1810 में लिखी गई ‘आयो अंगरेज मुलक रे ऊपर का उदाहरण देते हुए कहा कि सबसे पहले राजस्थानी साहित्य ने अंग्रेजों की गुलामी के विरूद्ध आजादी का बिगुल बजाया था। इससे पहले किसी भी भाषा के साहित्य में ऎसा दृष्टांत नहीं मिलता। उन्होंने कहा कि साहित्यकार को हमेशा यह आत्मविश्लेषण करना चाहिए कि वह क्यों लिखता है। यह दृष्टि उसके लेखन को समाज हित के लिए उपयोगी बनाए रखेगी।

डॉ मुमताज अली की अध्यक्षता में हुए कार्यक्रम के मुख्य वक्ता प्रख्यात साहित्यकार त्रिभुवन ने कहा कि पाकिस्तान सहित दुनिया के कई देशों में राजस्थानी बोली जाती है और राजस्थानी का साहित्य बड़ा ही अद्भुत है। उन्होंने कहा कि राजस्थानी के शब्दों की अभिव्यक्ति क्षमता देखकर दुनिया भर के भाषाविद चकित रह जाते हैं। उन्होंने कहा कि राजस्थान के लोगों और राजनेताओं को राजस्थानी की मान्यता का संकल्प लेना होगा।

वशष्टि अतथि िअतरिक्ति कलक्टर बी एल मेहरड़ा ने उम्मीद जताई कि शीघ्र ही राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची मे मान्यता मिल जाएगी। चूरू प्रधान रणजीत सातड़ा ने कहा कि राजस्थानी की मान्यता के लिए युवाओं को आगे आना चाहिए।

विमोचित पुस्तक की समीक्षा प्रस्तुत करते हुए युवा साहत्यिकार राजीव स्वामी ने कहा कि ‘संजीवणी एक रचनाकार के निजी संघर्षों और कड़वे-मीठे अनुभवों का सार्वजनिक बयान है। उन्होंने कहा कि अजय की प्रत्येक रचना कवि की उसके परिवेश के प्रति चौकन्नी नजर की परचिायक है। उन्होंने कवि की आत्मालोचनात्मक दृिष्ट की सराहना करते हुए कहा कि संग्रह की प्रेम कविताएं प्रेम के व्यापक स्वरूप को उद्घाटित करती हैं।

अतिथियों का स्वागत करते हुए प्रयास संस्थान के संरक्षक भंवर सिंह सामौर ने कहा कि कुमार अजय की पहली ही पुस्तक की रचनाओं में काफी परिपक्वता दिखाई दे रही है। बैजनाथ पंवार ने आभार जताया। प्रयास के अध्यक्ष दुलाराम सहारण ने अतिथियों का परिचय दिया।

इस मौके पर मुख्य अतिथि डॉ देवल को हाल में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री सम्मान की घोषणा के उपलक्ष्य में साफा बांधकर व शॉल, श्रीफल, प्रतीक चिन्ह व मान पत्र देकर सम्मानित किया गया। विभिन्न संस्थाओं की ओर से डॉ देवल का स्वागत किया गया। कार्यक्रम का संचालन कमल शर्मा ने किया।

इस दौरान सहायक जनसंपर्क निदेशक राजकुमार पारीक, सुरेंद्र पारीक रोहित पीआरओ रामप्रसाद शर्मा, रामगोपाल बहड़, दुलाराम सहारण, हरिसिंह सहारण, श्याम सुंदर शर्मा, माधव शर्मा, सुनीता दादरवाल, शबाना शेख, महावीर नेहरा, नारायण कुमार मेघवाल सहित बड़ी संख्या में बुद्धिजीवी, साहित्यकार, पत्रकार एवं नागरिक मौजूद थे।

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Sunday, January 30, 2011

एक पुरानी ग़ज़ल

खुद को जैसे जानता नहीं...

दूर हूं तुमसे, जुदा नहीं मगर
हां उदास तो हूं खफा नहीं मगर।

हजारों बरस से साथ हूं अपने
खुद को जैसे जानता नहीं मगर।

उसे बेवफा कहा, समझाया लाख
दिले-नादां बहलता नहीं मगर।

हर बार मरके संभला किया हूं
अंजाम मेरा बदला नहीं मगर।

इश्क से पहले बहुत सोच के भी
दिल ने कुछ भी सोचा नहीं मगर।

जैसे खुदा ही मेरा रकीब थानाजुक
रोया खूं, उसने देखा नहीं मगर।
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Tuesday, January 18, 2011

गौरव की निगाहें अब एकोन्कागुआ की ओर


माउंट एवरेस्ट पर तिरंगा लहराने वाले राजस्थान के पहले सिविलियन और चूरू के लाडले गौरव शर्मा की निगाहें अब दक्षिण अमेरिका महाद्वीप के सबसे ऊंचे पर्वत शिखर माउंट एकोन्कागुआ की ओर हैं। विश्व के सातों महाद्वीपों की सबसे ऊंची पहाड़ी चोटियों पर तिरंगा फहराने के ख्वाहिशमंद गौरव संभवतः इस वर्ष मार्च में 23 हजार 834 फीट की ऊंचाई पर स्थित इस पर्वत शिखर पर कदम रख चुके होंगे।

गौरव के मुताबिक, दुनिया के सबसे बड़े सांप एनाकोंडा के लिए मशहूर अर्जेंटीना के इस पर्वत शिखर पर चढाई के लिए मार्च से लेकर जून तक का मौसम सबसे बेहतर माना जाता है। वे इस सीजन की शुरुआत में ही इस अभियान को पूरा करने के मूड में हैं। रॉक्स की बहुतायत के कारण एकोन्कागुआ में आरोहण के लिए ज्यादातर रॉक क्लांइंबिंग के सहारे ही चढाई संभव होगी। चट्टानों की अधिकता से फिसलन के खतरे के चलते भी यह चढाई खासी चुनौतीपूर्ण रहेगी। इससे पहले गौरव को दलदली और कीचड़ भरे रास्ते से गुजरना होगा। गौरव बताते हैं कि वहां वातावरण अनुकूलन में भी थोड़ी परेशानी आ सकती है क्योंकि हिमालय की बजाय वहां की परिस्थितियां कुछ अलग हैं और ऑक्सीजन की मात्रा का प्रतिशत भी कम है। इन सब मुश्किलों के बावजूद गौरव के मन में कोई घबराहट, कोई बैचेनी नहीं क्योंकि गौरव को अपने हौंसले और शुभचिंतकों की दुआओं पर पूरा भरोसा है। फिर साउथ अ अफ्रीका के सबसे ऊंचे पर्वत किलीमिंजारो में उनके हमसफर रहे जयपुर के युवा साथी हरनाम सिंह इस बार भी उनके साथ होंगे। ऎसे में कहा जा सकता है निस्संदेह गौरव मार्च 2011 के किसी खूबसूरत पल में एकोन्कागुआ पर तिरंगा लहराते हुए उस पल की खूबसूरती में और इजाफा कर रहे होंगे।

सात शिखर छूने का सपना ः

चूरू के बाशिंदे गौरव ने 20 मई 2009 को दुनिया की सबसे ऊंची पहाड़ी चोटी एवरेस्ट पर तिरंगा फहराया था। इसके बाद उन्होंने विश्व के सातों महाद्वीपों के सर्वाधिक ऊंचाई वाले पर्वत शिखरों के आरोहण का संकल्प किया। इसी सपने को सच करने की दिशा में उन्होंने पिछले साल स्वाधीनता दिवस के मौके पर दक्षिणी अफ्रीका के सबसे ऊंचे पर्वत शिखर माउंट किलीमिंजारो पर अपने कदम रखे। अपने इन अभियानों में गौरव को खासी शारीरिक और आर्थिक परेशानियों का सामना करना पडा है लेकिन वे हार मानने वालों में से नहीं हैं। हर बार अपनी संघर्ष क्षमता के बूते इन्होंने सफलता का दामन थामा है।

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Monday, January 10, 2011

Thursday, September 9, 2010

चांद से फूल से या मेरी जुबां से सुनिए...

कुछ खास लोगों को यह तकलीफ हमेशा ही रही कि वे कलक्टर जैसे पद पर रहते हुए आम आदमी के करीब रहे। यह तकलीफ निस्संदेह एक बेहतर और सकारात्मक तस्वीर सामने लाती है। आम आदमी की दुश्वारियों और पीड़ाओं के लिए इनके भीतर का एक संवेदनशील मनुष्य हमेशा जागता रहा। ...और इसी जागते हुए आदमी ने इनके कलक्टर को वह सब करने में लगाए रखा, जिससे कहीं कहीं उस आम आदमी को राहत मिले। दो जून की रोटी के लिए संघर्ष करते उस आम आदमी को उसके हक मिलें, यह सोच-यह विजन डॉ कृष्णाकांत पाठक के कामकाज में हमेशा नजर आता रहा।

महानरेगा जैसी महत्वपूर्ण और महत्वाकांक्षी योजना में डॉ पाठक ने अपने नवाचारों के चलते चूरू को देशभर में अहम मुकाम दिलाया है। योजना जितनी बड़ी और अहम है, भ्रष्टाचार अनियमितताओं की गुंजाईशें भी उतनी ही अधिक हैं। जब तक ये गुंजाईशें खत्म नहीं होती, तब तक आम आदमी को इसका पूरा लाभ मिलना संभव ही नहीं। यही वजह थी कि योजना में गड़बड़ी के सारे सुराख बंद करने की ओर डॉ पाठक ने लगातार ध्यान बनाए रखा और इसी प्रगतिशील सोच का ही परिणाम था कि चूरू ई-मस्टररोल जारी करने वाला राजस्थान का प्रथम जिला बना। यह इस योजना में अनियमितताओं पर अंकुश की दिशा में एक बड़ी पहल थी, जिसमें निश्चित रूप से स्वयं डॉ पाठक ने व्यक्तिगत रूप से रूचि ली और यह एक कारगर कदम हुआ।

भुगतान में विलंब महानरेगा की एक बड़ी समस्या थी। महीनों तक मजदूरों को उनकी मजदूरी नहीं मिल रही थी। यह एक देशव्यापी समस्या थी। निम्न स्तर पर जीवन यापन करने वाले मजदूरों को अपनी मजदूरी के लिए महीनों इंतजार करना पड़े, यह डॉ पाठक को गवारा हुआ। नरेगा अधिनियम भी यही कहता है कि 15 दिनों में लोगों को उनकी मजदूरी मिले। ऎसे में डॉ पाठक ने एक नवीन कार्ययोजना बनाई, जिसमें पखवाड़ा समाप्त होने के बाद एक सप्ताह में सारी औपचारिकताएं, सारी प्रक्रियाएं पूरी हों और ज्यादा से ज्यादा 15 दिनों में मजदूरों को उनकी मजदूरी मिल जाए। यह तमाम कसरत काम आई और आज (कुछ अपवादों को छोड़कर) हम दावा कर सकते हैं कि चूरू 15 दिनों में महानरेगा श्रमिकों को उनकी मजदूरी का भुगतान कर रहा है। ऎसा करने वाले हम देश में प्रथम हैं।

महानरेगा चूंकि ग्राम पंचायत स्तर की योजना है और रोजगार देने में कहीं कहीं सरपंच, ग्रामसेवक और रोजगार सहायक की भूमिका रहती है। स्थानीय स्तर पर इनकी अपनी रूचियां भी योजना को प्रभावित करती ही हैं। इस तंत्र की नकारात्मक भूमिका के चलते कुछ लोग जरूरतमंद होने के बावजूद योजना से नहीं जुड़ पा रहे थे। डॉ पाठक ने इसे समझा और एक अभियान चलाकर प्रत्येक जॉब कार्ड धारी से नरेगा में रोजगार के लिए आवेदन भराने का काम कराया। आवेदन नंबर छह का एक नया फॉरमेट बना। वर्ष भर में किन पखवाड़ों में काम चाहिए, यह ग्रामीणों को नए प्रपत्र में अंकित करना था। अभियान के दौरान नए जॉब कार्ड भी बनाए गए और सत्यापन भी किया गया। नतीजा यह हुआ कि बड़ी संख्या में नए जॉब कार्ड बने और लोगों ने आवेदन भरे। अब उन्हीं आवेदनों के आधार पर मस्टररोल जारी किए जा रहे हैं।

15 अगस्त 2010 से चूरू में लागू किया गया ‘पब्लिक ग्रिवांस रिड्रेसल सिस्टम’ भी कहीं कहीं डॉ पाठक के भीतर की संवेदनशीलता की ही प्रतिक्रिया है। डॉ पाठक देखते हैं कि अनगिनत अनियमितताओं के बावजूद मुश्किल से तो कोई शिकायत करने की हिम्मत ( या हिमाकत ?) करता है और वही शिकायत जब फाइलों में दम तोड़ देती है तो शिकायत करने वाले के गाल पर यह दूसरा तमाचा होता है। किसी व्यक्ति की शिकायत पर क्या कार्यवाही हो रही है और वह किस स्तर पर चल रही है, देखने के लिए जिले में पब्लिक ग्रिवांस रिड्रेसल सिस्टम ‘लोकवाणी’ लागू करने की पहल की गई है। निसंदेह आने वाला समय ‘लोकवाणी’ के चमत्कार दिखाएगा। आज तमाम पदों पर कुंडली मारे बैठे लोग सूचनाओं को छिपाने के सारे षडयंत्र करने में जुटे हैं तो निश्चित रूप से ‘लोकवाणी’ कहीं कहीं पारदर्शिता, जवाबदेही और संवेदनशीलता के लिहाज से मिसाल है।
लोगों को तकनीक से जोड़ने और उसका फायदा दिलाने में हमेशा पाठक साहब की रूचि रही। डॉ पाठक ने जब देखा कि सारे राज्य में एक साथ शुरू किए गए जिला कम्प्यूटर प्रशिक्षण केंद्र (डीसीटीसी) ‘सफेद हाथी’ बनते जा रहे हैं तो उन्होंने डीसीटीसी का स्वरूप बदलने के लिए कमर ही कस ली। डॉ पाठक की व्यक्तिगत रूचि का ही नतीजा है कि आज चूरू डीसीटीसी अपनी उपलब्धियों के लिए पूरे प्रदेश में मॉडल है और यहां दिए गए प्रशिक्षणों के बाद दूसरे जिलों में स्थित केंद्रों की दशा भी सुधरने चली है।

अकाल के साये में अक्सर रहने वाले चूरू में जब पिछले दिनों इंद्रदेव मेहरबान हुए और बाढ़ के चलते लोगों को मुश्किलें झेलनी पड़ीं, तब पाठक साहब की संवेदनशीलता देखते ही बनी। उनके द्वारा दी गई तात्कालिक आर्थिक मदद तो अपनी जगह है लेकिन उनका लगातार बाढ़ पीड़ितों के बीच मौजूद रहकर काम करना प्रभावित करने वाला था। उन्होंने एक स्वयंसेवक की तरह निरंतर काम करते हुए पाठक साहब ने लोगों को यह यकीन दिला दिया कि कोई है जो उनकी तकलीफों को बराबर शिद्दत से महसूस करता है और इन तकलीफों को कम करने के लिए बातों में नहीं, काम में यकीन रखता है। गुजरात में आपदा राहत के लिए कमिश्नर एसआर राव को याद किया जाता है। सूरत में 2006 की बाढ के बाद कुछ ही दिनों में उन्होंने इस त्रासदी के नामोनिशां तक मिटा दिए थे। बाढ के बीस दिन बाद ही सूरत की सड़कों पर घूमते हुए मेरे लिए यह कहना मुश्किल था कि यह शहर इतनी बड़ी विभीषिका को हाल ही में झेल चुका है। बाढ की स्थिति और संसाधनों में अंतर अलग मुद्दा है। संवेदनशीलता और सक्रियता के लिहाज से डॉ पाठक कहीं भी श्री एसआर राव से कम नहीं ठहरते।

ऎसी ही अनेक उपलब्धियों से डॉ कृष्णाकांत पाठक का दामन भरा पड़ा है लेकिन पाठक साहब की सर्वाधिक चर्चा और सराहना जिस बात के लिए होती है, वह है इनकी संवेदनशीलता, सरलता और सुमधुर व्यवहार। जो भी इनसे मिला, वो इन्ही का हो लिया। जीवन में और खासकर इतने महत्वपूर्ण पद पर तनाव के अनेक क्षण जाते हैं, हालात कई बार विपरीत हो जाते हैं लेकिन शायद ही किसी ने पाठक साहब को असहज देखा हो। मनुष्य के लिए एक दुर्लभ सी स्थितप्रज्ञता इनके भीतर देखने को मिली। पाठक साहब से मुलाकात से पहले मैं निजी रूप से एक व्यक्ति को इसके लिए याद करता था। दैनिक भास्कर सीकर में मेरे एक सीनियर थे श्री अनिल कर्मा। मैंने कभी उन्हें गुस्सा होते हुए नहीं देखा। कठोरतम बातें भी वे बड़ी सहजता से कहा करते थे और कम से कम मैं तो उनके मृदु व्यवहार से खासा प्रभावित था। ठीक वैसी ही सहजता पाठक साहब में मुझे देखने को मिली। कैसी भी परिस्थिति हो और सामने कोई भी व्यक्ति हो, डॉ पाठक के भीतर का ‘मनुष्य’ इनके ‘कलक्टर’ पर हमेशा भारी रहा।

डॉ पाठक को उनके उज्ज्वल भविष्य के लिए ढेरों शुभकामनाएं...

मानवता के लिए काम करने का उनका यह जज्बा बरकरार रहे, ईश्वर से यही प्रार्थनाएं...