Sunday, January 30, 2011

एक पुरानी ग़ज़ल

खुद को जैसे जानता नहीं...

दूर हूं तुमसे, जुदा नहीं मगर
हां उदास तो हूं खफा नहीं मगर।

हजारों बरस से साथ हूं अपने
खुद को जैसे जानता नहीं मगर।

उसे बेवफा कहा, समझाया लाख
दिले-नादां बहलता नहीं मगर।

हर बार मरके संभला किया हूं
अंजाम मेरा बदला नहीं मगर।

इश्क से पहले बहुत सोच के भी
दिल ने कुछ भी सोचा नहीं मगर।

जैसे खुदा ही मेरा रकीब थानाजुक
रोया खूं, उसने देखा नहीं मगर।
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2 comments:

  1. जैसे खुदा ही मेरा रकीब था ‘नाजुक’
    रोया खूं, उसने देखा नहीं मगर।
    बहुत खुब।

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  2. बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना धन्यवाद|

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