Sunday, May 8, 2011

आरटीआई - लघुकथा

आरटीआई

वह यूं भी बेहद संवेदनशील और आक्रामक नौजवान था लेकिन आरटीआई ने उसकी सक्रियता को और बढा दिया था। अब वह रोजाना एकाध सरकारी दफ्तर में तो आवेदन लगा ही आता। जब देखो, तब आरटीआई से संबंधित कोई न कोई बुकलेट उसके हाथ में होती। ‘सूचना के अधिकार’ का विशेषज्ञ बनता जा रहा था वह।

अचानक, एक दिन वह प्रशासनिक सेवा के लिए चुन लिया गया। पदस्थापन के बाद भी उसके हाथ में कोई न कोई किताब आरटीआई से संबंधित तो रहती ही। एक दोस्त ने आखिर पूछ ही लिया, यार तू अधिकारी बन गया अब, कोई सामाजिक कार्यकर्ता तो है नहीं कि सारा समय ये ही पोथियां लिए फिरता है। अब तेरे किस काम की हैं ये ? नौजवान अधिकारी ने मुस्कराते हुए जवाब दिया, अरे यार पहले तो मैं इस चक्कर में रहता था कि कैसे ज्यादा से ज्यादा सूचनाएं जुटाई जाएं और अब मुझे यह जानने के लिए इनकी जरूरत रहती है कि कैसे आरटीआई में सूचना मांगने वालों को ज्यादा से ज्यादा टाला जाए। (कुमार अजय)

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1 comment:

  1. हर बात के दो अर्थ निकालने की आपकी कला सराहनीय है. कहानी पढ़े-लिखों की चालाकी पर व्यंग्य करती है. -राजीव कुमार

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