Thursday, September 9, 2010

चांद से फूल से या मेरी जुबां से सुनिए...

कुछ खास लोगों को यह तकलीफ हमेशा ही रही कि वे कलक्टर जैसे पद पर रहते हुए आम आदमी के करीब रहे। यह तकलीफ निस्संदेह एक बेहतर और सकारात्मक तस्वीर सामने लाती है। आम आदमी की दुश्वारियों और पीड़ाओं के लिए इनके भीतर का एक संवेदनशील मनुष्य हमेशा जागता रहा। ...और इसी जागते हुए आदमी ने इनके कलक्टर को वह सब करने में लगाए रखा, जिससे कहीं कहीं उस आम आदमी को राहत मिले। दो जून की रोटी के लिए संघर्ष करते उस आम आदमी को उसके हक मिलें, यह सोच-यह विजन डॉ कृष्णाकांत पाठक के कामकाज में हमेशा नजर आता रहा।

महानरेगा जैसी महत्वपूर्ण और महत्वाकांक्षी योजना में डॉ पाठक ने अपने नवाचारों के चलते चूरू को देशभर में अहम मुकाम दिलाया है। योजना जितनी बड़ी और अहम है, भ्रष्टाचार अनियमितताओं की गुंजाईशें भी उतनी ही अधिक हैं। जब तक ये गुंजाईशें खत्म नहीं होती, तब तक आम आदमी को इसका पूरा लाभ मिलना संभव ही नहीं। यही वजह थी कि योजना में गड़बड़ी के सारे सुराख बंद करने की ओर डॉ पाठक ने लगातार ध्यान बनाए रखा और इसी प्रगतिशील सोच का ही परिणाम था कि चूरू ई-मस्टररोल जारी करने वाला राजस्थान का प्रथम जिला बना। यह इस योजना में अनियमितताओं पर अंकुश की दिशा में एक बड़ी पहल थी, जिसमें निश्चित रूप से स्वयं डॉ पाठक ने व्यक्तिगत रूप से रूचि ली और यह एक कारगर कदम हुआ।

भुगतान में विलंब महानरेगा की एक बड़ी समस्या थी। महीनों तक मजदूरों को उनकी मजदूरी नहीं मिल रही थी। यह एक देशव्यापी समस्या थी। निम्न स्तर पर जीवन यापन करने वाले मजदूरों को अपनी मजदूरी के लिए महीनों इंतजार करना पड़े, यह डॉ पाठक को गवारा हुआ। नरेगा अधिनियम भी यही कहता है कि 15 दिनों में लोगों को उनकी मजदूरी मिले। ऎसे में डॉ पाठक ने एक नवीन कार्ययोजना बनाई, जिसमें पखवाड़ा समाप्त होने के बाद एक सप्ताह में सारी औपचारिकताएं, सारी प्रक्रियाएं पूरी हों और ज्यादा से ज्यादा 15 दिनों में मजदूरों को उनकी मजदूरी मिल जाए। यह तमाम कसरत काम आई और आज (कुछ अपवादों को छोड़कर) हम दावा कर सकते हैं कि चूरू 15 दिनों में महानरेगा श्रमिकों को उनकी मजदूरी का भुगतान कर रहा है। ऎसा करने वाले हम देश में प्रथम हैं।

महानरेगा चूंकि ग्राम पंचायत स्तर की योजना है और रोजगार देने में कहीं कहीं सरपंच, ग्रामसेवक और रोजगार सहायक की भूमिका रहती है। स्थानीय स्तर पर इनकी अपनी रूचियां भी योजना को प्रभावित करती ही हैं। इस तंत्र की नकारात्मक भूमिका के चलते कुछ लोग जरूरतमंद होने के बावजूद योजना से नहीं जुड़ पा रहे थे। डॉ पाठक ने इसे समझा और एक अभियान चलाकर प्रत्येक जॉब कार्ड धारी से नरेगा में रोजगार के लिए आवेदन भराने का काम कराया। आवेदन नंबर छह का एक नया फॉरमेट बना। वर्ष भर में किन पखवाड़ों में काम चाहिए, यह ग्रामीणों को नए प्रपत्र में अंकित करना था। अभियान के दौरान नए जॉब कार्ड भी बनाए गए और सत्यापन भी किया गया। नतीजा यह हुआ कि बड़ी संख्या में नए जॉब कार्ड बने और लोगों ने आवेदन भरे। अब उन्हीं आवेदनों के आधार पर मस्टररोल जारी किए जा रहे हैं।

15 अगस्त 2010 से चूरू में लागू किया गया ‘पब्लिक ग्रिवांस रिड्रेसल सिस्टम’ भी कहीं कहीं डॉ पाठक के भीतर की संवेदनशीलता की ही प्रतिक्रिया है। डॉ पाठक देखते हैं कि अनगिनत अनियमितताओं के बावजूद मुश्किल से तो कोई शिकायत करने की हिम्मत ( या हिमाकत ?) करता है और वही शिकायत जब फाइलों में दम तोड़ देती है तो शिकायत करने वाले के गाल पर यह दूसरा तमाचा होता है। किसी व्यक्ति की शिकायत पर क्या कार्यवाही हो रही है और वह किस स्तर पर चल रही है, देखने के लिए जिले में पब्लिक ग्रिवांस रिड्रेसल सिस्टम ‘लोकवाणी’ लागू करने की पहल की गई है। निसंदेह आने वाला समय ‘लोकवाणी’ के चमत्कार दिखाएगा। आज तमाम पदों पर कुंडली मारे बैठे लोग सूचनाओं को छिपाने के सारे षडयंत्र करने में जुटे हैं तो निश्चित रूप से ‘लोकवाणी’ कहीं कहीं पारदर्शिता, जवाबदेही और संवेदनशीलता के लिहाज से मिसाल है।
लोगों को तकनीक से जोड़ने और उसका फायदा दिलाने में हमेशा पाठक साहब की रूचि रही। डॉ पाठक ने जब देखा कि सारे राज्य में एक साथ शुरू किए गए जिला कम्प्यूटर प्रशिक्षण केंद्र (डीसीटीसी) ‘सफेद हाथी’ बनते जा रहे हैं तो उन्होंने डीसीटीसी का स्वरूप बदलने के लिए कमर ही कस ली। डॉ पाठक की व्यक्तिगत रूचि का ही नतीजा है कि आज चूरू डीसीटीसी अपनी उपलब्धियों के लिए पूरे प्रदेश में मॉडल है और यहां दिए गए प्रशिक्षणों के बाद दूसरे जिलों में स्थित केंद्रों की दशा भी सुधरने चली है।

अकाल के साये में अक्सर रहने वाले चूरू में जब पिछले दिनों इंद्रदेव मेहरबान हुए और बाढ़ के चलते लोगों को मुश्किलें झेलनी पड़ीं, तब पाठक साहब की संवेदनशीलता देखते ही बनी। उनके द्वारा दी गई तात्कालिक आर्थिक मदद तो अपनी जगह है लेकिन उनका लगातार बाढ़ पीड़ितों के बीच मौजूद रहकर काम करना प्रभावित करने वाला था। उन्होंने एक स्वयंसेवक की तरह निरंतर काम करते हुए पाठक साहब ने लोगों को यह यकीन दिला दिया कि कोई है जो उनकी तकलीफों को बराबर शिद्दत से महसूस करता है और इन तकलीफों को कम करने के लिए बातों में नहीं, काम में यकीन रखता है। गुजरात में आपदा राहत के लिए कमिश्नर एसआर राव को याद किया जाता है। सूरत में 2006 की बाढ के बाद कुछ ही दिनों में उन्होंने इस त्रासदी के नामोनिशां तक मिटा दिए थे। बाढ के बीस दिन बाद ही सूरत की सड़कों पर घूमते हुए मेरे लिए यह कहना मुश्किल था कि यह शहर इतनी बड़ी विभीषिका को हाल ही में झेल चुका है। बाढ की स्थिति और संसाधनों में अंतर अलग मुद्दा है। संवेदनशीलता और सक्रियता के लिहाज से डॉ पाठक कहीं भी श्री एसआर राव से कम नहीं ठहरते।

ऎसी ही अनेक उपलब्धियों से डॉ कृष्णाकांत पाठक का दामन भरा पड़ा है लेकिन पाठक साहब की सर्वाधिक चर्चा और सराहना जिस बात के लिए होती है, वह है इनकी संवेदनशीलता, सरलता और सुमधुर व्यवहार। जो भी इनसे मिला, वो इन्ही का हो लिया। जीवन में और खासकर इतने महत्वपूर्ण पद पर तनाव के अनेक क्षण जाते हैं, हालात कई बार विपरीत हो जाते हैं लेकिन शायद ही किसी ने पाठक साहब को असहज देखा हो। मनुष्य के लिए एक दुर्लभ सी स्थितप्रज्ञता इनके भीतर देखने को मिली। पाठक साहब से मुलाकात से पहले मैं निजी रूप से एक व्यक्ति को इसके लिए याद करता था। दैनिक भास्कर सीकर में मेरे एक सीनियर थे श्री अनिल कर्मा। मैंने कभी उन्हें गुस्सा होते हुए नहीं देखा। कठोरतम बातें भी वे बड़ी सहजता से कहा करते थे और कम से कम मैं तो उनके मृदु व्यवहार से खासा प्रभावित था। ठीक वैसी ही सहजता पाठक साहब में मुझे देखने को मिली। कैसी भी परिस्थिति हो और सामने कोई भी व्यक्ति हो, डॉ पाठक के भीतर का ‘मनुष्य’ इनके ‘कलक्टर’ पर हमेशा भारी रहा।

डॉ पाठक को उनके उज्ज्वल भविष्य के लिए ढेरों शुभकामनाएं...

मानवता के लिए काम करने का उनका यह जज्बा बरकरार रहे, ईश्वर से यही प्रार्थनाएं...

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