Monday, October 12, 2009

किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए...

यूं इस दिवाली पर भी परेशां और फिक्रमंद होने के लिए काफी कुछ है, बीती दिवालियों की तरह ही, मसलन... मंदिरों की आरतियों को चीख चीत्कार में बदलते धमाके... बाजारों की रौनक को जर्रा-जर्रा कर देने वाले हादसे... दुश्मनों की बदनीयत की शिकार सरहदें... रोजमर्रा बनी मुठभेड़ों में शहीद होते हमारे जवान... मतलब के कीचड़ से सनी राजनीति... भ्रष्टाचार के दलदल में डूबी नौकरशाही... और हत्या, लूट, अपहरण, बलात्कार की खबरों से भरे अखबार हमारी दिवाली पर कालिख मलने को आतुर हैं, वहीं औंधे मुंह पड़ा सैंसेक्स और आटे-दाल का भाव बता रही महंगाई भी हमारी मुश्किलों में इजाफे के लिए कम नहीं। ये तमाम चीजें हमारी दिवाली को बेरौनक और बेमजा करने के लिए जुटी हैं। वैसे भी जिस व्यवस्था में भ्रष्ट, मतलब परस्त और सत्तालोलुप नेताओं, रिश्वतखोर नौकरशाहों तथा अंधेेरे के हिमायती आतंकियों के घर खुशियों के दीप हैं, वहां आम आदमी के लिए दिवाली की गुंजाईश ही कहां है मगर शायद इसीलिए हमारा किरदार ज्यादा अहम हो गया है।
आइए, इन मुश्किलातों से इतर एक दीया जलाएं खुशी का... खुशहाली का...अमनो-सुकून का। इन सब हादसों को अनदेखा कर नहीं, वरन इन सब तकलीफों और नातकदीरियों के खिलाफ। संभावनाओं का एक ऐसा चिराग, जिसकी रोशनी हमारी दीवारों की कैद से निकलकर गांव-शहर और ढाणी-ढाणी की छतों की मुंडेरों से गुजरते हुए हर किसी की जिंदगी में रोशनी करे। ये रोशनी जब लौटकर आएगी, यकीन मानिए वह लम्हा निसंदेह हमारे लिए सुकूने-दिल से लबरेज होगा।
कोई जरूरी नहीं कि हम कोई बड़ा दिखने वाला काम हाथ में लें, या फिर बहुत रुपया पैसा खरचने के लिए हमारी जेब में हो या बहुत सारे लोगों का हुजूम साथ लेकर हम चलें। बगैर किसी हो-हंगामे और लाव-लश्कर के भी हम यह काम अंजाम दे सकते हैं, बेहद खूबसूरती से। हां, इतनी शर्त जरूर है कि हमारे जेहन में एक जज्बा हो और एक पुख्ता इरादा हो इस दिवाली को हर घर, हर दिल में पहुंचाने का...
बहुत दिन हुए दादा-दादी, मम्मी-पापा की गोद में बैठकर ढेर सारी बातें किए... तो आज फुरसत भी है, और मौका भी। बैठ जाएं उनकी दुआओं की छांह में। घंटे... दो घंटे... चार घंटे ... गिले-शिकवे सुनें... दिल खोलकर कह लेने दें उन्हें... जी भर कर कहें अपनी भी। उनके लाड़-प्यार और तजुरबों की खुशबुएं आपके दिल के चमन को बाग-बाग नहीं कर दें तो फिर कहें मुझसे...।
आपकी दरो-दीवार से चिपकी बोगन-बीलिया बड़े अरसे से तरस रही है आपसे बातें करने को... तो आज हो ही जाए निगाहे-करम। गौर से देखें उनकी खूबसूरती और सूखे पत्तों को हटाते हुए करें गुफ्तगू। किशोर कुमार की यूडलिंग और शम्मी कपूर की याहू के साथ घर-आंगन में खडे दरख्तों को पानी दें। हरी दूब में बैठकर कुछ देर बेमतलब ही मुस्कराएं... गुनगुनाएं... हजारों-हजार मायने आपके सामने सिर उठाकर खड़े हो जाएंगे।
शाम को अपने हिस्से की फुलझड़ियों और आतिशबाजी के साथ तशरीफ ले जाएं उन इलाकों में ... अपने ही शहर की उन बस्तियों में, जहां दो जून की रोटी को तरसते मिनख और दूध के लिए बिलबिलाते मासूम अपनी जिंदगी से जूझ रहे होंं। उनके साथ बिताएं एक शाम... वहां बांटें अपनी खुशियां। दिवाली को क्या ये हक नहींं कि उनके भी घर जाए। ... तो जनाब आप जरा सी हरकत में आकर अपना फर्ज निभाएं तो उसे मिले अपना हक और आपको मिले सुकून...ढेर सारा।
नजर फैलाएं अपने आस-पड़ौस में। ऐसे भी कई घर होंगे जिनकी मुंडेरों पर किसी वजह से आज दीये नहीं जले। कड़ाही भी नहीं चढ़ी। उनकी उदासियों में शिरकत कर उन्हें मुस्कराहटें बांटें। गले मिलकर उनकी नम आंखों के आंसू पौंछें। आपकी हमदर्दी बेशक उन्हें ये बताने में कामयाब होगी कि उन्होंने जितना खो दिया, उससे हजार गुना चीजें यहां मौजूद हैं जिंदगी में उनके लिए।
गांव-गुवाड़ में बड़े-बूढ़ों के पैर छूकर, राम-राम कर उनके पास बैठें। 'कागज की कश्ती`, 'बारिश का पानी` और 'वो खेल, वो साथी, वो झूले-वो दौड़ के कहना आ छूले` के दिनों की याद उन्हें कराते हुए उनकी आंखें में उभरी 'वो दिन हवा हुए, जब पसीना गुलाब था` की मीठी शिकायत सुनें। आज के दौर की महंगाई का जिक्र कर उनसें सुनें उस जमाने के भाव-ताव, जब एक रुपए में बीसियों किलो घी आ जाता था और कई मन अनाज। यह भी सुनें कि जब देश भर में मजहब के नाम पर मार-काट मची थी, उन लम्हों में कैसे हमारे पुरखों ने राम-रहीम का भेद भुलाते हुए एक दूजे को गले लगाकर भाईचारे का मजहब निभाया था।
और हां, याद आया... बहुत दिन हुए किसी की स्नेहिल चिट्ठी पढ़े... और खत लिखे हुए भी तो एक अरसा बीत गया। तो कागज-कलम उठाएं और रोज एक चिटठी लिखने की कसम खाकर बस बैठ ही जाएं... और लिख डालें अपने प्यारे काका... ताऊ... मामा... नानी... बुआ... भाई... भतीजे या किसी दोस्त को। ऊर्जा, ऊष्मा और अपणायत से लबालब एक खत। भई, ये तो आप भी मानते होंगे कि हमारे साथ बोलती-सांस लेती इन चिटि्ठयों में जो महक है, दो पांच बटनों के एसएमएस में वो बात नहीं। तो एक बार अपने दिल की सुनें और फिर देखें, अगली दिवाली तक कैसे आपके पास भी अपनों के प्यार से लबरेज खतों को ढेर लग जाएगा। बंद हो गए इस सिलसिले को क्यूं न आज ही और आप ही शुरू करें...।
ऐसे ही और भी बहुत सारी बातें हैं... चीजें है... और काम हैं... जिन्हें आप सोचें, करें और महसूसें उनका जादू। आपकी दिवाली तो खूबसूरत होगी ही, आप दूसरों की जिंदगी में भी भर सकेंगे ढेर सारे रंग। ये न समझिए, आपके बिखेरे रंग यहीं आस-पड़ौस में खोकर रह जाएंगे। इन रंगों की खुशबू इतनी यूनिवर्सल है कि मत पूछिए। असली चीजें तो ऐसे ही चुपचाप, किसी भी हुल्लड़बाजी से दूर अपना आंचल पसारती हैं लोगों के लिए। हमारी दिवाली भी ऐसे ही देश-दुनिया में पसर कर रौनक बिखेरेगी। ... और यह तो होना है, हम तो बस इतना चाहते हैं कि यह ककहरा आप लिखें। इस रोशनी का सेहरा आपके सिर बंधे।
... तो सारे ताम-झाम से फुरसत लेकर चलें गांव-शहर के पास किसी टीलेे की गोद में और सुनहरी रेत में अंगुलियां फिराते हुए आंखें बंद कर वहीं मंदिर की घंटी और मस्जिद की अजान को महसूस करें। प्रार्थना करें सबके सुख... सबकी शांति के लिए। शिकायतें नहीं... शुक्रिया कहें उस असीम शक्ति को सेहत, परिवार, दोस्त, नौकरी और भी तमाम सारी चीजों के लिए... टीले की सुनहरी रेत के लिए भी... शुभ दिवाली।

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