Tuesday, September 29, 2009

जिंदगी से बतियाती कहानियाँ

'कुरजाँ' कहानी के एक किरदार के जरिए ''बारीक कहानी बुनना, अतीत की आवारा रूह को अपनी देह पर बुलाने जैसा होता है'' कहने वाली मनीषा कुलश्रेष्ठ इस दुरूहता के बावजूद बारीक कहानी बुनने के फन में खासी माहिर हैं। संवेदनशील सृजनधर्मी अपने पात्रें के दु:ख, तकलीफ और लाचारियों को अपने भीतर जीता है-उसके हिस्से की यंत्रणाओं को झेलता है, तब कहीं जाकर उसके शब्दों में वह क्षमता विकसित होती है जो संवेदनशील पाठक के हृद्य में भी ठीक वैसी ही यंत्रणाओं को जन्म देते हुए उसे झकझोरती-झिंझोड़ती है। इन यंत्रणाओं को अपने भीतर जीने-झेलने की यही क्षमता युवा कथाकार मनीषा को सहज ही एक समर्थ कथाकार के रूप में स्थापित करते नजर आती है। सामाजिक सरोकार से लबरेज मनीषा के कथा संग्रह 'कठपुतलियां' की कहानियों में वर्तमान दौर की विद्रूपताओं, विसंगतियों और बदलावों के चलते असुरक्षित और असहज महसूस करते पात्रों के मनोवैज्ञानिक द्वंद्व के उभार के बीच उनका आत्मविश्वास और उनकी निर्णय क्षमता काबिले-गौर है। लोकरंग की खुशबू से सराबोर कहानियों में लेखिका की आंचलिक पकड़, भाषायी क्षमता और किस्सागाई का अंदाज देखते ही बनता है।

शॉपिंग मॉल, कॉम्प्लेक्स और मल्टीप्लेक्स के इस दौर में जबकि वक्त बीते दौर के रिवाजों को खारिज करते जा रहा है, इसी परिदृश्य में जब संस्कार और मूल्यों के साथ-साथ और भी काफी कुछ मनुष्य के हाथ से भुरभुरा कर फिसल रहा है, तो ये कहानियां पढक़र एक सुकून का सा अहसास होता है कि मनीषा अपनी पूरी क्षमता के साथ इस दौर को बचाए रखने में तो कहीं-कहीं इस बदले वक्त के साथ पूरा दमखम लगाकर दौड़ भी रही हैं। इन कहानियों में कहीं कोई शोरगुल नहीं-कहीं कोई जल्दबाजी या हड़बड़ी नहीं। पूरी तसल्ली के साथ अपनी सधी हुई कलम से वे एक-एक शब्द जमाते हुए जब अपना सृजन लेकर प्रस्तुत होती हैं तो न केवल हर बार हमारे पास से निकलती है अपितु ठीक हमारे भीतर से गुजरती हेै और कभी-कभी तो बड़ी ही शालीन-स्निग्ध बेरहमी से हमारे भीतर का सब-कुछ छलनी कर जाती हैं और कभी शूल बनकर चुभी ही रहती हैं, लाख चाहकर भी उन्हें नहीं निकाल पाते हम। जाहिर है कि लेखिका के भीतर जो द्वंद्व है, वह हम सभी का धर्मयुद्घ है जिसे हम अक्सर अनदेखा छोड़ जाते हैं लेकिन मनीषा हमारे आस-पास हर क्षण घट रहे इन खामोश हादसों से नजर बचाने नहीं देती, बल्कि सीधा हमें उनके सामने लाकर पटक देती हैं, जैसे कह रही हों कि अब बचो !

स्त्री विमर्श को स्वर देती संग्रह की पहली कहानी 'कठपुतलियां' की नायिका सुगना दिखने में भले ही एक पारंपरिक और लाचार किरदार है लेकिन अपने आत्मविश्वास और निर्णय क्षमता के चलते वह आधुनिक स्त्री से भी एक कदम आगे नजर आती है. एक तरफ उसने अपने पति रामकिशन को ही अपना देवता मानकर पारंपरिक भारतीय नारी का प्रतिनिधित्व किया है, वहीं विश्वास के समानांतर खड़े प्रेम के जटिल द्वंद्व के बीच यह निर्णय करके कि वह अपने पति के साथ ही रहेगी, आधुनिक स्त्री के कदमों से कदम मिलाकर चलने का प्रयास किया है। नेह की तरलता से सरोबार यह कहानी क्षण-क्षण समस्याओं से जूझती मरूथल की धरती और यहां के लोगों की जीवट को अभिव्यक्त करते हुए एक निर्णायक संदेश दे जाती है कि हमारी लाख कोशिशों के बावजूद अब 'सुगना' कठपुतली नहीं बनेगी। लोकतत्वों से भरपूर यह कहानी बेमेल विवाह, पेयजल संकट, बाल-विवाह, जनसंख्या (बच्चे दो ही अच्छे- सुगना) जैसे सामाजिक मुद्दों को भी गंभीरता से उठाती है।
'प्रेत-कामना' एक साठ वर्ष के रिटायर्ड प्रोफेसर के हृद्य में युवा होते प्रणय के जरिए उम्र के आखिरी मुकाम पर एकाकी हुए व्यक्त की जिंदगी को लेकर एक नया ही नजरिया पेश करती है। 'जीवन से ही छिटक गया हूं अब... कहीं से छूट गया है मेरा सिरा... एक निरा प्रेम बनकर रह गया हूं मैं...' कहने वाला निराश, हताश और कुंठित प्रोफेसर कहानी के अंत में दृढ़ नजर आने लगता है। ताउम्र पत्नीव्रत होकर जिए रिटायर्ड प्रोफेसर का जीवन के इस मोड़ पर स्वयं से आधी उम्र की आधुनिका अणिमा से प्रेम यहां भी खासे मनोवैज्ञानिक द्वंद्व को जन्म देता है। एक तरफ 'एकाकी पिता को सिहराती, स्वयं को एक स्त्री के साथ सहवासरत होते हुए देख लिए जाने की भीषण ग्लानि' है तो दूजी ओर उपेक्षित दृष्टिकोण रखने वाले बेटे को दृढ़ और आत्मविश्वास से भरपूर प्रत्युत्तर। कहानी युवा पीढ़ी की बुजुर्गोंं के प्रति बेरूखी को प्रतिबिंबित करती है तो दूसरी तरफ पारंपरिक प्रतिमानों को तोड़ते प्रेम के नये आयाम स्थापित करती है। मठों-आश्रमों में धर्म के नाम पर हो रहे व्यभिचार का चित्र्ण करती 'रंग-रूप-रस-गंध' प्रेम के एक नये ही रंग को सामने रखती है। पंडों की बुरी नजर की शिकार बाल विधवा जया के मन में बेनु माधव का व्यवहार प्रेम का दीया जलाता है लेकिन इस दीये का प्रकाश उसकी जिंदगी फैले, अंधेरे के पैराकारों की बुरी नजर फिर बेनु को डस लेती है। कहानी में रंगजी की देहरी पर जया का बेनु के लिए दीया जलाना और कहना -''भगवान सच ही में नाथद्वारा गया हो बेनुमाधव, भले ही लौट के ना आये... वहीं बस जाये पर जिंदा रहे।'' सच में प्रेम की पराकाष्ठा ही है। यही प्रेम मनीषा के लेखन की विशेषता है।

कैरियर महत्वाकांक्षाओं को लेकर एयरफोर्स छोडक़र 'भगोड़ा' बने प्रशांत की कहानी एक ओर असंतोष के इस युग में व्यक्ति की अनंत दौड़ भागते रहने की त्रासदी को व्यक्त करती है, वहीं एयरफोर्स जैसी बेहतर दिखने वाली संस्था के भीतर की अव्यवस्थाओं और अफसरों की मातहतों से बदसलूकी के काले पक्ष उजागर करती है। भविष्य की चिंताओं, सामाजिक बहिष्कार की शंकाओं के बीच मृत सपनों और अतीत के अधजले टुकड़ों को कुरेदते प्रशांत को यह कल्पना करके मिल रहा क्रूर सुख कि एक दिन महेश लौटे और एयरपोर्ट पर ही धर लिया जाए, ही इस वक्त की क्रूर त्रासदी है। संकट से घिरे व्यक्ति के लिए बस यही संतोष बचा है कि दु:खों और व्यथाओं से भरी इस दुनिया में वह अकेला नहीं, अपने-अपने हिस्से की तकलीफें सबने बांट रखी हैं। फिर भी पंखनुचे भविष्य को सहलाकर, ताकत समेटकर जीवन की दिशा में उडऩे का प्रशांत का संकल्प शुभ संकेत देता है।
कहानी 'परिभ्रांति' भी प्रेत कामना के प्रोफेसर की तरह रिटायर्ड विधुर कर्नल की त्रसदियों, कुंठा, हताशा और एकाकीपन की अभिव्यक्ति है। यहां एक तरफ है कर्नल का दृढ़, संयमी, स्वंयसिद्घ व्यक्तित्व तो दूसरी ओर है बूढ़े-बीमार विधुर की विक्षिप्तता की हद तक पहुंची मानवीय दुर्बलताएं। कर्नल के नोट में अंकित स्वीकारोक्ति- ''मेरे अस्तित्व के कारको, तुमने मुझे विरासत में एक संवेदनशील हृद्य तो दिया, इसी हृद्य ने जहां मेरे संसार को खुशियों से पूर्ण किया, वहीं यही हृद्य अपनी किस्मत में अकेलेपन का दुर्भाग्य लेकर क्यों आया'' एकाकी जीवन की विडंबनाओं को एकदम सहजता से व्यक्त कर देती है।

अवक्षेप कहानी आदिवासी छात्रवासों में हो रहे यौनशोषण और भ्रष्टाचार का चित्र्ण करती है। कहानी की मुख्य पात्र बेनु के कथन- ''...म्हैं सोच्यो पर्चा माँ पूछोला कि... हम कैसे यहां रहते हैं, €या खाते हैं ? हमें मिलने वाली छातरवर्ती को कौन खा जाता है पण पर्चें में तो होर ही बातां हैं ...'' तथा '' पुलिस? वो हमारे यहाँ की दोनों कंजडिऩें हैं न, उनको ले जाके इंचारज पुलिस को खुश रखता है'' सारी कहानी साफ बयान कर देते हैं। भले ही हम और हमारी सरकारें आदिवासियों के कल्याण की लाख बातें करें, हकीकत कुछ और ही है। आदिवासियों के स्वाभिमान और आत्मसम्मान को भी लेखिका ने उकेरा है।
राजस्थान के सीमावर्ती इलाकों के जीवन पर आधारित 'कुरजाँ' इक्कीसवीं सदी में गुजरने का दंभ भरते आधुनिक मानव के मुँह पर तमाचा है। लोकमानस में फैले अंधविश्वासों और डायन प्रथा जैसी धारणाओं से रूबरू कराते हुए लेखिका रावळे के अत्याचारों के साथ-साथ पुलिस और बीएसएफ के जवानों द्वारा सीमावर्ती क्षेत्रें में किए जाने वाले दुष्कर्मों से भी हमारा परिचय कराती है। नायिका का कथन 'अकेली औरत गोश्त की भुनी हुई नमकीन बोटी से अधिक €या होती है' नारी के प्रति समाज के एक दृष्टिकोण को प्रस्तुत करता है। 'बिगड़ैल बच्चे' कहानी में अपने व्यवहार से उन्मुक्त, स्वच्छंद और लापरवाह से दिखने वाले तीन युवा नई पीढ़ी को कोस रहे जमाने का नजरिया बदल कर रख देते हैं जब कि बुजुर्ग महिला सहयात्र्ी के ट्रेेन से टकरा कर प्लेटफॉर्म पर गिर जाने के बाद उसकी देखभाल करते हैं और इसके लिए अपनी ट्रेन भी छोड़ देते हैं। दूसरी तरफ सिद्घांतों, आदर्शों और मर्यादाओं की दुहाई देने वाले दूसरे सहयात्र्ी अपनी मजबूरियां बताकर घटना को अनदेखा कर देते हैं। दुर्घटनाग्रस्त हिंदू महिला के प्रति मुसलमान डॉ€टर और क्रिश्चियन युवाओं की सुश्रुषा भावना निश्चय ही एक सांप्रदायिक सद्भाव का संदेश भी छोड़ जाती है। कहानी सवाल पैदा करती है कि युवा पीढ़ी को केवल उनके आचरण की उन्मु€तता के चलते संस्कारहीन और आवारा कहकर नकारना, दुत्कारना और कोसना कहां तक उचित है? क्यों भूलते हैं हम कि स्वच्छंदतापसंद ये ही युवा हमारे वर्तमान और भविष्य हैं। 'स्वांग' तकनीकी क्रांति के नाम पर संवेदना खोते समाज की कहानी है। पेंशन और चिकित्सा सहायता के लिए दफ्ृतरों के चक्कर लगाकर निराश लौटे कथानायक राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त गफ्फार खां मेले में स्वांग दिखाकर कुछ रुपए जुटा भी लेते हैं तो क्या, इतने से रुपयों में कैंसरग्रस्त बीवी का इलाज मुमकिन नहीं। जाहिर है कि प्रौद्योगिकी क्रांति और तकनीकी विकास ने स्वांग जैसी परंपरागत कलाओं को तो समाप्त कर दिया लेकिन खुद आम आदमी के लिए दूर की कौड़ी बनी तकनीक खुद एक स्वांग बनकर रह गई है। इन कलाओं ने जाति, धर्म और देश की सरहदों को पार कर आदमीयत के जो रिश्ते कायम किए थे, तथाकथित तरक्की के इस दौर में लुप्त हुए जा रहे हैं। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि कथाकार मनीषा कठपुतलीबाज रामकिशन की तरह कहानियों के डोरे कसने में निष्णात हैं। मामूली सी दिखने वाली चीजों को लेकर परिप€व कथादृष्टि, गहरे मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और सुंदर भाषायी शिल्प के साथ रची गई कहानियां दिल को छू लेती हैं। अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रत्येक वय के व्यक्ित के यौन व्यवहार को पूरी बोल्डनेस के साथ आवाज देने वाली मनीषा अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों से एक क्षण भी विमुख नहीं होती। हां, समस्याओं और घटनाओं को लेकर उनका अपना नजरिया है, जिसकी उपेक्षा हम लाख चाहकर भी नहीं कर सकते। ज्यादातर कहानियां में स्त्र्ी के हालात मुखर हुए हैं, जिन्हें पढक़र अनायास ही प्रभा खेतान का यह वाक्य ''संसार का शायद ही कोई कोना होगा, जो औरतों के आंसुओं से भीगा न हो'' (उपन्यास- अपने-अपने) याद आ जाता है। इस दौर के व्यक्ति की दुश्वारियों, दुश्चिंताओं और दुविधाओं को स्वर देती मनीषा ने एक त्रासद सच को उकेरने की कोशिश के साथ साथ सार्थक प्रतिरोध की कहानियां रची हैं। जिंदगी से करीब होकर बतियाती इन कहानियों में चीजों को देखने के धारदार नजरिए और पैनी कलम से एक पुख्ता मनोवैज्ञानिक असर गहराया है। कहानियों की खूबसूरती यह है कि एक बार शुरू करने के बाद लंबे Žयौरों से भरी होने के बावजूद इन्हें पढऩे को जी चाहता है। बदलते समय के साथ हो रहे छोटे-छोटे परिवर्तन और उनसे उपजी भीतरी-बाहरी जद्दोजहद का बारीकी से चित्रण और मूल्यांकन ही इन कहानियों का मूल स्वर है। निश्चय ही इन कहानियों के साथ मनीषा कथाकार के तौर पर खासी संभावनाएं जगाती हैं और सशक्त भावी लेखन के प्रति आश्वस्त भी करती हैं।

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