Wednesday, February 24, 2010

मायड़ भाषा के लिए समर्पित एक प्रवासी का आयोजन

निसंदेह यह एक अनूठा आयोजन था... अक्सर जिस तरह के कार्यक्रमों से सामना होता है उनसे खासा अलग। अलग इस मायने में कि इस आयोजन में औपचारिकताएं हावी नहीं... औपचारिकताएं थीं तो जरूर लेकिन आयोजन के सूत्रधार की विराट भावनाओं में कहीं दबी हुई मात्र। आमतौर पर इस तरह के समारोह खुद को ही प्रतिष्ठित करने के साधन मात्र होते हैं लेकिन यहां ऎसा कुछ नजर नहीं आया। आयोजक श्री नरेंद्र कुमार धानुका पूरे समारोह में साहित्य और साहित्यकारों के एक सेवक की तरह दौड़-धूप और खिदमत करते दिखे। आयोजन में मौजूद एक-एक सृजनधर्मी को खुद दौड़कर पूरी आत्मीयता से गले से लगाकर गद्गद् कर दिया।

धानुका सेवा ट्रस्ट की ओर से पिछले कई बरस से आयोजित किया जा रहा सरस्वती सेवा सम्मान समारोह पिछले दिनों विश्व मातृभाषा दिवस पर 21 फरवरी 2010 रविवार को फतेहपुर के त्रिवेणी भवन में आयोजित हुआ। मुझे भी साहित्यिक मित्रों सहित समारोह में शामिल होने का सौभाग्य मिला। धानुका जी जैसे साहित्यप्रेमी से मिलकर खुशी हुई। वर्ष 2008 के लिए सीकर के डॉ गोरधन सिंह शेखावत को तथा वर्ष 2009 के लिए बीकानेर के डॉ मदन सैनी को सरस्वती सेवा सम्मान दिया गया। चूरू के वयोवृद्ध साहित्यकार श्री बैजनाथ पंवार को विशिष्ठ पुरस्कार ‘मानुष तनु’ से सम्मानित किया गया तो ‘बसंती देवी धानुका युवा साहित्यकार पुरस्कार’ से मेरे अग्रज समान दुलाराम सहारण सम्मानित हुए।
समारोह के मुख्य अतिथि राजस्थानी व हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ चंद्र प्रकाश देवल ने सुनने वालों की आत्मा को झकझोर देने वाला व्यक्तव्य दिया। ठेठ राजस्थानी भाषा में डॉ देवल ने कहा, ‘इक्कीस फरवरी को यूएनओ द्वारा मातृभाषा दिवस इसलिए घोषित किया गया है क्योंकि इस दिन बंगला भाषा के लिए 7 लोगों ने अपना बलिदान दिया था और 29 लोग घायल हुए थे। गौर करने वाली बात है कि भाषा के सवाल पर ही बांग्लादेश की नींव रखी गई। हम भी अपनी भाषा को सहेज सकें, इसके लिए जरूरी है कि मायड़ भाषा का मंदिर बने, जहां आकर लोग झुकें तभी मान्यता मिलेगी।’
डॉ देवल ने कहा, ‘सवाल है कि रवींद्रनाथ क्यों बड़े हैं? इसलिए कि नोबल पुरस्कार प्राप्त करने के बाद भी उन्होंने बाल साहित्य रचा। बांग्ला नहीं होती तो रवींद्र नहीं होते और रवींद्र नहीं होते तो आज बांग्ला जितनी समृद्ध है, उतनी नहीं होती। लेखक अपनी भाषा को और भाषा अपने लेखक को समृद्ध करती है।’
रवींद्र नाथ को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा कि शेर की खाल बहुत सुंदर होती है, इसलिए उससे घर को सजाया जा सकता है, पूजा के समय उस का आसन बनाया जा सकता है लेकिन हम अपने शरीर की खाल से तो उसकी अदला-बदली नहीं कर सकते हैं। इसी प्रकार मायड़ भाषा की तुलना दूसरी किसी भाषा से नहीं की जा सकती है। यूं तो हम अपने घर में राजस्थानी बोलते हैं और जब वास्तव में हमें अपनी बात कहने का अवसर और मंच मिलता है तो हम हिंदी में शुरू हो जाते हैं।
उन्होनें कहा कि पुरस्कार के बाद लेखक की नैतिक जिम्मेदारी बढ जाती है कि वह अपने सार्थक सृजन से समाज को दिशा दे। राजस्थानी भाषा की मान्यता को उन्होंने राजस्थानियों की अस्मिता का सवाल बताते हुए कहा कि भाषा नहीं तो संस्कृति नहीं और बिना संस्कृति के हमारी कोई पहचान नहीं। उन्होंने कहा कि इस बात को ध्यान रखें कि हम भारतीय हैं, इसलिए राजस्थानी नहीं है अपितु राजस्थानी हैं, इसलिए भारतीय हैं। इसलिए अपने राजस्थानी होने को बचाएं, भारतीयता अपने आप बची रहेगी। उन्होंने कहा कि राजस्थानी की मान्यता के आंदोलन को जन आंदोलन बनाना होगा।
मायड़ भाषा में उत्कृष्ट साहित्य सृजन पर भी बल देते हुए श्री देवल ने इस मौके पर राजस्थानी लेखकों का आह्वान किया कि मान्यता तो संवैधानिक एवं राजनैतिक प्रश्न है और वह एक दिन मिलनी ही है। लेकिन केवल मान्यता नहीं होने के बहाने राजस्थानी के लेखक अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। उन्होंने कहा कि कम से कम राजस्थानी में कोई रवींद्र नाथ तो पैदा हो, कोई कालिदास तो पैदा हो जो विश्वस्तरीय साहित्य की रचना करे, लिखने से कौन रोक रहा है। बंगाली में रवींद्र नाथ टैगोर जैसे साहित्यकार हुए हैं, जिनकी विद्वता से प्रभावित होकर अंग्रेजों को कहना पड़ा था कि आपको देखकर लगता है कि हिंदुस्थान को अब आजाद होना चाहिए।
उन्होंने कहा कि केंद्रीय साहित्य अकादेमी में राजस्थानी भाषा को मान्यता है, वह काम भी किसी राजनेता या राजस्थानी व्यक्ति का नहीं है। अद्भुत सी बात है कि राजस्थानी को यह गौरव 1975 में एक बंगाली सुनीति कुमार चटर्जी ने दिलाया क्योंकि उन्होंने राजस्थानी का अध्ययन कर पाया था कि राजस्थानी एक वैज्ञानिक भाषा है जिससे उचित महत्व मिलना ही चाहिए।
उन्होंने कहा कि नरेंद्र कुमार धानुका का काम धर्म और तपस्या से छोटा काम नहीं है। धानुका जी ने जिस तरह से दिल खोलकर स्वागत किया, उससे दिल खुश हुआ। लेखकों का भी दायित्व है कि वे अपना कर्ज उतारें और रचनात्मक व सार्थक लेखन से समाज को दिशा दें। साहित्यकारों का दिल खोल कर अभिनंदन करने वाले नरेंद्र जी जैसे लोग तो इज्जत करते रहेंगे, इनकी तो यह विनम्रता है लेकिन हमारी भी यह जिम्मेदारी है कि इस स्वागत, अभिनंदन और इनके द्वारा दिए जा रहे विशेषणों के योग्य होकर दिखाएं। लेखक की अपनी जिम्मेदारी है कि वह वापस समाज को कितना रचनात्मक दे सकता है। धानुका ट्रस्ट की भावना को समझने की जरूरत है। धानुका जी ने इस मातृभाषा दिवस के दिन को वाकई त्योहार बना दिया है, इनसे प्रेरणा लेकर कुछ तो प्रण लो। उन्होंने अतिशयोक्ति और अतिरेक भरे प्रशस्ति पत्रों पर आपत्ति दर्ज कराते हुए कहा कि इस तरह की भाषा रचने वाला तो दोषी है ही, ऎसी प्रशस्ति को सुनने वाले को भी पाप लगता है और लेखक के भटकने का खतरा रहता है।
कबीर का ‘सुखिया सब संसार है खावै अर सोवै , दुखिया दास कबीर है, जागै और रोवै।’ दोहा उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा कि सारी जिम्मेदारी उनकी है, जो मायड़ भाषा और अपनी संस्कृति की पीड़ समझते हैं। उन्होंने उम्मीद जताई कि लेखक आगे बढें, लिखें और साहित्य में श्रीवृद्धि करें, अपना कर्ज उतारें तभी भाषा की तरक्की होगी।
विभिन्न उद्धरणों के साथ उन्होंने कहा कि भाषा की क्षमता अद्भुत है और भाषा ही हमारा जीवन प्राण आधार है। भाषा के साथ हमारा नाळ का संबंध है। हमारी अस्मिता का आधार है भाषा, भाषा नहीं तो संस्कृति नहीं और संस्कृति नहीं तो फिर क्या है हमारे पास। प्रवासियों का भी इस भूमि और भाषा से नाळ का संबंध है। उनका इस भूमि से जुड़ाव भी है। प्रवासियों को एक मंदिर मायड़ भाषा का बनाना चाहिए। वहां पर लोग झुकेंगे तो निश्चित ही भाषा के लिए एक जागरुकता भी आएगी।
श्री देवल ने कहा कि राजस्थान के लोकगीतों में सर्वाधिक वियोग है क्योंकि विरह राजस्थानियों के अवचेतन में भरा पड़ा है। वह वियोग है अपनी भाषा, संस्कृति और भूमि छूटने का। राम-विभीषण प्रसंग के साथ ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा कि भाषा को पहने बिना हम नंगे हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि बालक पांच साल की आयु तक 80 प्रतिशत सीख जाता है लेकिन हमारे यहां तो विद्यालय में जाते ही बच्चे का सामना अजनबी भाषा से होता है और उसके विकास में एक व्यवधान पैदा होता है। बच्चे की प्रारंभिक शिक्षा उसकी मातृभाषा में ही होनी चाहिए।
उन्होंने कहा कि पहले मुगलों ने 500 साल राज किया, अदालती कामकाज की भाषा में हम इसका प्रभाव देख सकते हैं। फिर 200 साल तक अंग्रेजों का शासन रहा, उन्होंने अंग्रेजी हम पर थोपी। सवाल है कि इन विपरीत हालात में राजस्थानी भाषा जिंदा कैसे रही। उन्होंने कहा कि राजस्थानी उन महान अनपढ लोगों के कारण जिंदा रहीं, जिन्हें लिखना पढना नहीं आया।
भाषायी संक्रमण की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि रेल अपने साथ कितने ही शब्द लेकर आई मसलन... स्टेशन, सिग्नल, प्लेटफार्म, टीटी। इसी तरह कम्प्यूटर की भी अपनी भाषा है। एक कम्प्यूटर को तो हम अपनी भाषा में कुछ भी कह लें लेकिन माउस को क्या करेंगे। इसलिए इससे चिंतित होने की जरूरत नहीं है, यह बदलाव तो चलता ही रहता है।
समारोह के प्रधान वक्ता राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति श्रीडूंगरगढ के संस्थापक अध्यक्ष श्री श्याम महर्षि ने भी राजस्थानी की मान्यता की मांग जोरदार ढंग से उठाते हुए कहा कि जब तक भाषा रोजी-रोटी से नहीं जुडे़गी, तब तक उसका अस्तित्व बचाए रखना मुश्किल है। उन्होंने कहा कि धनार्जन की मजबूरी में परदेस जाना जरूरी है लेकिन प्रवासी अपनी जन्मभूमि और मातृभाषा को नहीं भूलें। जन्मभूमि पर जिस का घरौंदा नहीं, उसकी कोई पहचान नहीं। उन्होंने कहा कि प्रत्येक पुरस्कार लेखक को यह जिम्मेदारी सौंपता है कि वह पुरस्कार की गरिमा का ख्याल करते हुए समाज के लिए उपयोगी लेखन करे। उन्होंने कहा कि यह सुखद स्थिति है कि हिंदी को छोड़ दें तो देश में राजस्थानी भाषा में किसी भी भाषा से अधिक पुरस्कार है।
उन्होंने कहा कि प्राचीन राजस्थानी और जूनी गुजराती में कोई अंतर नहीं लेकिन बड़े नेताओं की गलती के कारण राजस्थानी खामियाजा भुगत रही है और गुजराती को गांधी-पटेल मिले तो वह आज बेहतर स्थिति में है।
उन्होंने कहा कि राजस्थानी सहित 36 भाषाओं को मान्यता की बात हो रही है लेकिन राजस्थानी को 36 भाषाओं में शामिल करना भी बेइंसाफी ही है, राजस्थानी को इसकी विशेषताओं के कारण सर्वप्रथम मान्यता मिलनी चाहिए। उन्होंने कहा कि राजस्थानी का आंदोलन कभी जन आंदोलन नहीं बन सका, इसलिए राजस्थानी आज उपेक्षित है। उन्होंने कहा कि मान्यता का सवाल केवल लेखकों के लिए नहीं, यह 8 करोड़ लोगों के हक की लड़ाई है।
आयोजक ट्रस्ट के श्री शंकरलाल धानुका ने कहा कि राजनेताओं की बेरूखी के कारण राजस्थानी भाषा उपेक्षित है। इसलिए राजस्थानियों को यह संकल्प करना होगा कि वोट उसी को देंगे जो राजस्थानी भाषा के हित की बात करेगा, जो मान्यता की बात करेगा।
साहित्यकार हनुमान दीक्षित ने अध्यक्षता करते हुए कहा कि भौतिक एवं शब्द सृष्टि के समन्वय से यह संसार चल रहा है लेकिन भौतिक सृष्टि नष्ट हो जाती है, शब्द सृष्टि शाश्वत है। उन्होंने कहा कि महाभारत की तमाम निशानियां आज मिट गई होंगी, वेदव्यास ने कहां बैठकर लिखा होगा, वह स्थान भी उपलब्ध नहीं लेकिन महाभारत और गीता आज भी जिंदा हैं। समारोह में विशिष्ठ अतिथि राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी के पूर्व अध्यक्ष सीताराम महर्षि, प्रसिद्ध आलोचक डॉ किरण नाहटा, श्री बैजनाथ पंवार, श्री दुलाराम सहारण, श्री मदन सैनी, श्री गोरधन सिंह शेखावत ने भी संबोधित किया। आयोजक ट्रस्ट के श्री नरेंद्र कुमार धानुका ने आभार जताया। संचालन डॉ चेतन स्वामी ने किया। समारोह के दौरान डॉ रामकुमार घोटड़ द्वारा संपादित पुस्तक ‘देश-विदेश की लघुकथाएं’ तथा श्री शिशुपाल सिंह नारसरा व श्री गोरधनसिंह शेखावत की पुस्तक ‘गांव की चौपाल एवं अन्य एकांकी’ का विमोचन किया गया। इस दौरान राजस्थानी के वरिष्ठ कवि श्री भंवर सिंह सामौर, श्री सीताराम महर्षि, श्री शंभूप्रसाद केड़वाल ने कविता पाठ किया। पूर्व जिला प्रमुख सांवरमल मोर ने अतिथियों को प्रतीक चिन्ह भेंट किए।
कार्यक्रम में केसरी कांत ‘कांत’ पं. उमाशंकर, विश्वनाथ भाटी, सुधींद्र शर्मा सुधि, कमल शर्मा, देवकरण जोशी दीपक, उम्मेद गोठवाल, उम्मेद धानियां सहित बड़ी संख्या में साहित्यप्रेमी, रचनाकार व नागरिक मौजूद थे।
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