Saturday, March 13, 2010

समीक्षा - पंछी की पुकार (कविता संग्रह)

पंछी की हर कविता एक मुद्दा है
देश की आजादी से महज एक-डेढ साल पहले जन्मे 64 वर्षीय वरिष्ठ कवि संतोष कुमार ने बेशक देश की अब तक जिंदगी में आए विभिन्न आर्थिक, सामरिक व राजनीतिक संकटों और इन सबके बीच दो जून की रोटी के लिए जूझते आम आदमी की जिंदगी में आ रहे नित नए बदलावों के एक युग को जीया है। यही वजह है कि उनका काव्य संग्रह ‘पंछी की पुकार’ देश और परिवेश की दुर्दशा से दुखी एक देशप्रेमी आम आदमी का व्यथा काव्य है। आज हम और हमारा देश जिन चुनौतियों से हर क्षण दो-चार हो रहे हैं, पंछी ने अपने काव्य चिंतन में उन तमाम चुनौतियों को बेहतर ढंग से दर्ज किया है और सबसे ज्यादा उम्मीद जगाने वाली बात यह है कि वे इन चुनौतियों और चिंताओं के यथार्थ को केवल अभिव्यक्त ही नहीं करते, अपितु इनके निदान भी सुझाते हैं, शर्त महज यह है कि हम समाधान के लिए तैयार हों।
संग्रह की कविताओं में व्यक्ति की रोजमर्रा की समस्याओं से लेकर देश की राष्ट्रव्यापी समस्याओं को एक-एक कर आवाज दी गई है। कवि हृद्य में जहां एक तरफ देश की संप्रभुता, स्वतंत्रता, गणतंत्र, गौरवपूर्ण संस्कृति और सुनहरे इतिहास के प्रति विराट गर्व की भावना है, वहीं मौजूदा दौर की समस्याओं और देश के रहनुमाओं के चरित्र को लेकर एक शिकायत व पीड़ा का भाव भी गहरे तक दर्ज है। भुखमरी, गरीबी, शराबखोरी, पर्यावरण प्रदूषण, बेरोजगारी, बालश्रम, दहेज, विवाह में फिजूलखर्ची और कन्या भ्रूण हत्या से लेकर आतंकवाद, जातिवाद, धर्मांधता और जहरीली सियासत सरीखी वह कौनसी समस्या और चुनौती है, जिसे लेकर कवि ने ध्यान खींचने की कोशिश नहीं की हो। संग्रह की पहली ही कविता ‘देश की एकता खतरे में’ से ही कवि अपने इरादों से अवगत करा देता है जब वह आतंकवाद और अलगाववाद के ज्वलंत प्रश्न को उठाते हुए राष्ट्रीय एकता व अखंडता को बनाए रखने का संदेश व्यक्त करता है। अगली कविता ‘गणतंत्र तुमसे नमन करूं’ में कवि अपने राष्ट्रपे्रम को स्वर देते हुए देश के लिए बलिदान हुए शहीदों को पूरी शिद्दत के साथ याद करता है।
कवि के अंतस में गांव की गलियों में बीते बचपन के साथ पीपल, पनघट, धूणी, गोधूलि बेला में बजती गायों और बैलों की घंटियों, भोर की चक्की, मुर्गें की बांग और चिड़ियाओं के शोर का मधुर स्मरण है, वहीं क्षण-क्षण घटित हो रहे बदलाव से संक्रमित होते संस्कारों की गहरी तकलीफ भी है। कवि को बदलाव की यह आंधी रास नहीं आ रही क्योंकि इन बदलावों में जो कुछ कवि को अच्छा और सुकून देने वाला है, उसे बदल दिया जा रहा है और सबसे ज्यादा पीडाजनक यह कि कवि सिवाय अपनी पीड़ा को कविता में अंकित करने के कुछ भी नहीं कर पा रहा है। मोबाइल का अतिप्रयोग और फूहडता से भरे फैशन सहित तमाम तथाकथित आधुनिकताएं कवि को परेशान करती हैं।
देश वर्तमान में जिन चुनौतियों से जूझ रहा है, तेजी से बढ़ती आबादी उनमें से बहुत समस्याओं की जननी है। यही वजह है कि कवि की कई कविताएं परिवार नियोजन और छोटा परिवार के संदेश को समर्पित हैं। देश के आम आदमी की तरह कवि भी कहीं न कहीं नेताओं को जिम्मेदार समझता ही है और इन आम अपेक्षाओं पर जरा भी खरे नहीं उतरने वाले आज के नेताओं की बड़ी ही खराब छवि कवि के नाजुक हृद्य में अंकित है।
हो भी क्यों नहीं, कवि उस युग की सियासत का गवाह है जो गांधी, नेहरू और शास्त्री जैसे गौरवमयी व्यक्तित्वों से गरिमा पाती थी। नेताओं के प्रति कवि की यह भावना अभिव्यक्त हुए बिना नहीं रहती। देश की आजादी, एकता और स्वाभिमान के लिए बलिदान हो जाने वाले उन महान जननायकों की तुलना जब कवि वर्तमान दौर के सत्तालोलुप, भ्रष्ट और सिद्धांतहीन खलनायकों से करता है तो इस तरह की अभिव्यक्ति स्वाभाविक ही है। नेताओं के लिए गिरगिट की तरह रंग बदलते, खिसियानी हंसी हंसते, कान पकड़ते, नाक रगड़ते, और पूंछ हिलाते जैसे मुहावरों और मारने झोटे, बिन पैंदे के लोटे, आस्तीन के सांप जैसे विशेषणों का प्रयोग कवि हृद्य में जन्मी उसी घृणात्मक प्रतिक्रिया की पैदाईश है।
भारतीय इतिहास की गौरवमयी नारियों का स्मरण कर कवि ने जहां नारी विमर्श को स्वर दिया है, वहीं पाश्चात्य संस्कृति और फैशन के अंधानुकरण में भटकी आज की नारी को राह दिखाने का प्रयास भी ‘पंछी’ ने किया है। ‘किसान की पीड़ा’ में कवि ने दिन रात हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद भी दो वक्त की रोटी के लिए मोहताज देश के कृषक वर्ग की व्यथा को स्वर देते हुए उसे बच्चो को पढाने और परिवार नियोजन अपनाने जैसे संदेश भी दिए हैं तो ‘बेरोजगारी और निराशा’ कविता में डिग्रियों के संग्रह के बावजूद बेकार घूमते युवाओं को स्वरोजगार अपनाने की बात कही है। ‘कौमी एकता से पहले घर की एकता’ के जरिए कवि ने सुधी पाठक की दुखती रग को तो छेड़ा ही है, बड़ी बड़ी बातें बनाने वाले समाज के ठेकेदारों को आईना भी दिखाया है। अपनी एक रचना में बाढ़ का चित्रण करते हुए इस आपदा की घड़ी में भी फोटो खिंचवाकर पिकनिक मनाते लोगों और हेलीकाप्टर से दौरे करते नेताओं पर सटीक कटाक्ष किया है। ‘जीवन का चक्कर ’ कविता में आम आदमी की जिंदगी में मौजूद विडंबनाओं और विसंगतियों का प्रभावित करने वाला चित्र है तो ‘राजनीति और राम’ कविता में दिन दिन काले पड़ते जा रहे लोकतंत्र के चेहरे की तस्वीर खींचने की कोशिश की है। ‘फागुन की मस्ती और होली’ कविता मेें रंग, चंग और हुड़दंग से भरपूर अल्हड़पन है तो फूली सरसों, गेहूं की लहराती बालियों, पंछियों के राग, हंसी ठिठोली और पिचकारी के जरिए उल्लास, खुशहाली और समृद्धि का संदेश भी मौजूद है। स्काईलैब, आपातकाल, बाढ़, अकाल, इंदिरा गांधी की हत्या जैसी समकालीन घटनाओं पर प्रतिक्रिया का अंदाज कवि के युग बोध और चेतना को अभिव्यक्त करता है। अनेक रचनाओं में जीवन, कर्म, अहिंसा, सत्य और धर्म का मर्म समझाते कवि का दार्शनिक रूप मानव के रूप अनेक कविता में मुखर होकर सामने आता है, जब वह कहता है - ‘‘ कहीं पथ में तेरे सुमन खिले, कहीं पथ में तेरे कांटे हैं, कहीं शोर मचा है महलों में, कहीं मरघट के सन्नाटे हैं। ’’
कुल मिलाकर वर्तमान समय की व्यक्तिगत विडंबनाओं और सार्वजनिक विसंगतियों-विद्रूपताओं पर करारी चोट करती ये रचनाएं दरअसल कविता नहीं मुद्दे हैं। ‘पंछी’ की हर कविता एक मुद्दा है, एक संदेश है, जिससे मुंह छिपाकर हम और आप ज्यादा देर तक नहीं रह सकते। बहरहाल, पंछी की पुकार के लिए कामना की जा सकती है कि बात निकली है तो फिर दूर तलक जाएगी।
-कुमार अजय
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1 comment:

  1. 'पंछी की पुकार' की अच्‍छी समीक्षा की है आपने।
    बधाई आपको व कविवर संतोष कुमार जांगिड़ पंछी को।

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