Saturday, May 8, 2010

मा



वातानुकूलित कक्ष में
आरामदेह बिस्तरों पर
गहरी नींद लेते हुए भी
अक्सर सुना है मैंने
तुम्हारी लोरी का संगीत।


रसपूर्ण एवं
स्वादिष्ट भोजन से
तृप्त हो जाने के बाद भी
रोज सुनाई पड़ती है मुझे
उस फूंकनी की आवाज
जिससे जलाकर चूल्हा
तुम सेंकती थी रोटियां।


मेरी गृहवाटिका में खिले
गुलाबों से बिखरी खुशबू
एकदम फीकी है उस गंध से
जिसे पैदा करते थे
कंडे थापते हाथ तुम्हारे।


मा ! सब कुछ शून्य है
अस्तित्वहीन है
तुम्हारे सिवा, तुम्हारे बिना।
बाकी सब रिश्ते
एक और ही गणित से चलते हैं
मगर तुम
बिल्कुल निर्लिप्त हो
उस जोड़-बाकी
गुणा-भाग से।


1 comment:

  1. अजयजी
    अच्छी कविता के लिए बधाई !
    शस्वरं - राजेन्द्र स्वर्णकार

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